अर्थशास्त्र की किताबों में अपस्फीति यानी डिफ्लेशन को कुछ इस तरह बयां किया जाता है-अपस्फीति उस स्थिति को कहते हैं जिसमें कमोबेश सभी वस्तुओं की कीमत में गिरावट आती है। लेकिन यह परिभाषा जितनी आसान दिखती है समझने में उतनी सरल नहीं है। इसे समझने के लिए पहले उन वजहों को जानना पड़ेगा जिनके चलते यह स्थिति पैदा होती है।
डिफ्लेशन के क्या कारण हैं?
डिफ्लेशन की स्थिति किन कारणों से पैदा होती हैं, इसको लेकर अर्थशास्त्रियों की अलग-अलग राय है। क्लासिकल इकनॉमिस्ट मानते हैं कि यह मौद्रिक घटना है यानी ऐसा मुदा की मांग और आपूर्ति में असंतुलन से होता है। इसे इस तरह समझा जा सकता है कि मांग और आपूर्ति का हिसाब किताब दूसरी कमोडिटी की तरह मुद्रा में भी होता है। अगर मुद्रा की आपूर्ति मांग से कम है तो उसकी कीमत बढ़ जाएगी। इससे हमें सामान और सेवाएं खरीदने के लिए कम मुद्रा की जरूरत होगी। इसका मतलब उस स्थिति में सामान और सेवाओं की कीमत घट रही है।
दूसरी विचारधारा वाले अर्थशास्त्रियों का मानना है कि बहुत ज्यादा उत्पादन होने या मांग घटने से डिफ्लेशन की स्थिति पैदा होती है। मतलब, जब बाजार में सामान या सेवाओं की उपलब्धता मांग से ज्यादा हो जाती है तो उत्पादन आधिक्य की स्थिति बन जाती है। इससे कीमतों में गिरावट आती है। लेकिन इसके पुराने उदाहरण बताते हैं कि डिसइनफ्लेशन मांग में गिरावट और मुद्रा की कम उपलब्धता के चलते होती है। मतलब, मुद्रा की आपूर्ति में गिरावट और अत्यधिक उत्पादन की स्थिति कदमताल करती हैं। अमेरिका में 30 के दशक की महामंदी और 90 के दशक में जापानी डिफ्लेशन के मामले में ऐसा ही हुआ था।
इसके दुष्प्रभाव क्या हैं?
डिफ्लेशन के चलते बेरोजगारी बढ़ती है, यही इसका सबसे बड़ा दुष्प्रभाव है। जब कीमतों में चौतरफा गिरावट आती है तब लोग यह सोचकर सामान खरीदना कम कर देते हैं कि कीमतें और घटेंगी। इसके चलते मांग तेजी घटती है, कंपनियों के पास इन्वेंटरी का जखीरा बढ़ता है और उत्पादन में कमी की जाती है। इसके चलते कंपनियां कर्मचारियों की छंटनी करती हैं। दरअसल, महामंदी के दौरान अमेरिका में बेरोजगारी 25 फीसदी तक पहुंच गई थी। सरकारी और नियामक संस्थाओं के पास डिफ्लेशन रोकने के दो तरीके होते हैं। वे ज्यादा मांग पैदा करने के लिए सरकारी खर्च बढ़ा सकते हैं या रेपो और सीआरआर में कटौती कर व्यवस्था में मुद्रा की उपलब्धता बढ़ा सकते हैं।
इसे गंभीर आर्थिक समस्या क्यों माना जाता है?
ज्यादातर अर्थशास्त्री मानते हैं कि इन्फ्लेशन से ज्यादा मुश्किल डिफ्लेशन को काबू करना है। इस पर अंकुश लगाने के लिए दोनों उपाय किए जा सकते हैं। यानी सरकारी खर्च बढ़ाते हुए या इसके बगैर व्यवस्था में मुद्रा की उपलब्धता बढ़ाई जा सकती है। लेकिन इनके इस्तेमाल की भी कुछ सीमा है। सरकार कुछ राजकोषीय बाध्यताओं के चलते खर्च में लगातार बढ़ोतरी नहीं कर सकती। बड़ा राजकोषीय घाटा किसी अर्थव्यवस्था के लिए सही नहीं है। केंद्रीय बैंक भी हमेशा के लिए बाजार में मुदा की उपलब्धता बढ़ाता नहीं रह सकता। मुद्रास्फीति की रोकथाम में मुद्रा की उपलब्धता घटाना ज्यादा आसान है, क्योंकि रेपो रेट और सीआरआर में अंतहीन बढ़ोतरी चल सकती है। लेकिन अपस्फीति की स्थिति में इन दोनों दरों में कटौती की जाती है। ये शून्य या उससे नीचे नहीं किए जा सकते। ये सभी समस्याएं डिफ्लेशन को गंभीर आर्थिक समस्या बनाती हैं।
डिफ्लेशन के क्या कारण हैं?
डिफ्लेशन की स्थिति किन कारणों से पैदा होती हैं, इसको लेकर अर्थशास्त्रियों की अलग-अलग राय है। क्लासिकल इकनॉमिस्ट मानते हैं कि यह मौद्रिक घटना है यानी ऐसा मुदा की मांग और आपूर्ति में असंतुलन से होता है। इसे इस तरह समझा जा सकता है कि मांग और आपूर्ति का हिसाब किताब दूसरी कमोडिटी की तरह मुद्रा में भी होता है। अगर मुद्रा की आपूर्ति मांग से कम है तो उसकी कीमत बढ़ जाएगी। इससे हमें सामान और सेवाएं खरीदने के लिए कम मुद्रा की जरूरत होगी। इसका मतलब उस स्थिति में सामान और सेवाओं की कीमत घट रही है।
दूसरी विचारधारा वाले अर्थशास्त्रियों का मानना है कि बहुत ज्यादा उत्पादन होने या मांग घटने से डिफ्लेशन की स्थिति पैदा होती है। मतलब, जब बाजार में सामान या सेवाओं की उपलब्धता मांग से ज्यादा हो जाती है तो उत्पादन आधिक्य की स्थिति बन जाती है। इससे कीमतों में गिरावट आती है। लेकिन इसके पुराने उदाहरण बताते हैं कि डिसइनफ्लेशन मांग में गिरावट और मुद्रा की कम उपलब्धता के चलते होती है। मतलब, मुद्रा की आपूर्ति में गिरावट और अत्यधिक उत्पादन की स्थिति कदमताल करती हैं। अमेरिका में 30 के दशक की महामंदी और 90 के दशक में जापानी डिफ्लेशन के मामले में ऐसा ही हुआ था।
इसके दुष्प्रभाव क्या हैं?
डिफ्लेशन के चलते बेरोजगारी बढ़ती है, यही इसका सबसे बड़ा दुष्प्रभाव है। जब कीमतों में चौतरफा गिरावट आती है तब लोग यह सोचकर सामान खरीदना कम कर देते हैं कि कीमतें और घटेंगी। इसके चलते मांग तेजी घटती है, कंपनियों के पास इन्वेंटरी का जखीरा बढ़ता है और उत्पादन में कमी की जाती है। इसके चलते कंपनियां कर्मचारियों की छंटनी करती हैं। दरअसल, महामंदी के दौरान अमेरिका में बेरोजगारी 25 फीसदी तक पहुंच गई थी। सरकारी और नियामक संस्थाओं के पास डिफ्लेशन रोकने के दो तरीके होते हैं। वे ज्यादा मांग पैदा करने के लिए सरकारी खर्च बढ़ा सकते हैं या रेपो और सीआरआर में कटौती कर व्यवस्था में मुद्रा की उपलब्धता बढ़ा सकते हैं।
इसे गंभीर आर्थिक समस्या क्यों माना जाता है?
ज्यादातर अर्थशास्त्री मानते हैं कि इन्फ्लेशन से ज्यादा मुश्किल डिफ्लेशन को काबू करना है। इस पर अंकुश लगाने के लिए दोनों उपाय किए जा सकते हैं। यानी सरकारी खर्च बढ़ाते हुए या इसके बगैर व्यवस्था में मुद्रा की उपलब्धता बढ़ाई जा सकती है। लेकिन इनके इस्तेमाल की भी कुछ सीमा है। सरकार कुछ राजकोषीय बाध्यताओं के चलते खर्च में लगातार बढ़ोतरी नहीं कर सकती। बड़ा राजकोषीय घाटा किसी अर्थव्यवस्था के लिए सही नहीं है। केंद्रीय बैंक भी हमेशा के लिए बाजार में मुदा की उपलब्धता बढ़ाता नहीं रह सकता। मुद्रास्फीति की रोकथाम में मुद्रा की उपलब्धता घटाना ज्यादा आसान है, क्योंकि रेपो रेट और सीआरआर में अंतहीन बढ़ोतरी चल सकती है। लेकिन अपस्फीति की स्थिति में इन दोनों दरों में कटौती की जाती है। ये शून्य या उससे नीचे नहीं किए जा सकते। ये सभी समस्याएं डिफ्लेशन को गंभीर आर्थिक समस्या बनाती हैं।
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