बेंजामिन ग्राहम ने साल 1930 में चले भयंकर संकट के दौर के वक्त कहा था कि निवेशकों को बाजार को देखने की बजाय वैल्यू इनवेस्टिंग की ओर गौर करना चाहिए। इनवेस्टरों को वास्तव में यह देखना चाहिए कि कंपनी की क्या स्थिति है यह कितनी मजबूत है और बुरे वक्त में कंपनी का प्रदर्शन कैसा रहा है। किसी भी निवेशक को कंपनी में निवेश करने से पहले इसके एसेट्स , कर्जों और नकदी जुटाने की क्षमता के बारे में जानकारी जुटानी चाहिए। अगर किसी कंपनी इतनी सस्ती मिल रही हो कि इसकी वैल्यू में इसके कारोबार से निकलने के बाद बेहद कम गिरावट आए तो ऐसी कंपनी को मार्जिन ऑफ सेफ्टी के दायरे में रखना चाहिए। ऐसे में अगर कोई कंपनी इसके बारे में किए गए दावों के बावजूद सस्ती दिखाई दे तो संकट के दौर में निवेशक इस पर दांव लगा सकता है। साथ ही अगर बाजार कंपनी के शेयरों के आकलन में चूक रहा है तो निवेशक इसमें निवेश से काफी मुनाफा कमा सकता है। न्यूयॉर्क टाइम्स में छपे एक हालिया आर्टिकल में वारेन बफेट ने कहा है कि शेयरों में खरीद का यही मौका है और आगे आने वाला वक्त अनिश्चित हो सकता है। साल 1932 की गर्मियां के बारे में उनका कहना है कि शेयरों ने उस दौर में अर्थव्यवस्था में तेजी आने से पहले ही ऊपर चढ़ना शुरू कर दिया था। इस तरह की समानताएं इस वक्त भी दिख रही हैं। हमें इस बात को खंगालने की कोशिश नहीं करनी चाहिए कि बाजार कब तक तेजी की ओर लौटेगा। या कि कब यह बॉटम पर पहुंच जाएगा। निवेशकों को यह समझ लेना चाहिए कि इस बारे में सोचना बेकार है। निवेशकों को देखना चाहिए कि कंपनी की बैलेंस शीट कैसी है। साथ ही बैलेंस शीट प्रक्रिया से यह जानने की कोशिश करनी चाहिए कि कंपनी के शेयरों की क्या कीमत है और सबसे बुरी स्थिति में भी इसके शेयरों की क्या स्थिति हो सकती है। अगर हमारे आकलन इस बारे में इंगित करते हैं कि कंपनी मार्जिन ऑफ सेफ्टी के लिहाज से ठीक है तो हम इसके शेयरों को खरीद सकते हैं। एक आदमी जिसने साल 1933 में जर्मन इंडेक्स फंड में निवेश किया था (इसी साल हिटलर सत्ता में आया था) उसने उसी वक्त बॉन्ड में निवेश में करने वाले एक निवेशक के मुकाबले साल 1955 में काफी बेहतर रिटर्न हासिल किया।
यह रिटर्न ऐसे वक्त में मिले जबकि साल 1939 से लेकर 1945 तक द्वितीय विश्व युद्ध का दौर चला। इक्विटी में दैनिक आधार पर उतार-चढ़ाव पैदा होता है लेकिन इनमें लंबे वक्त में काफी अच्छे रिटर्न मिलते हैं। भारत की जीडीपी के बारे में सबसे नकारात्मक सोच रखने वाले भी मानते हैं कि अगले दो-तीन साल तक छह से सात फीसदी की वृद्धि दर रह सकती है। ऐसी स्थिति में भी देश की जीडीपी वृद्धि दर 15 फीसदी के करीब होगी। और इस स्थिति में घरेलू कॉरपोरेट जगत की बिक्री दर 15 से 20 फीसदी की रफ्तार से आगे बढ़ेगी। यह वृद्धि दर हालांकि हाल के कुछ सालों में रही रफ्तार से कम रहेगी लेकिन इस वक्त जिस तरह के नकारात्मक अनुमान लगाए जा रहे हैं उससे कहीं बेहतर स्थिति हमें देखने को मिलेगी। सबसे बड़ी बात यह है कि निवेशकों को इस वक्त ज्यादा चिंतित होने की जरूरत नहीं है। इस वक्त शेयरों में निवेश को लंबे वक्त के लिहाज से किए जाने की जरूरत है। जैसे ही वित्तीय संकट से फोकस हट कर आशंका किए जा रहे आर्थिक मंदी की ओर होगा इंडस्ट्री के बारे में पिछले कुछ सालों में किए गए अनुमानों की वास्तविकता पर सवाल होने शुरू हो जाएंगे। पिछले कुछ सालों में इक्विटी बाजार का फोकस केवल आमदनी पर रहा है। विश्लेषकों का पूरा ध्यान इस दौरान कंपनी के प्रोफाइल और नुकसान पर रहा है। इनका गौर कंपनी के कैश फ्लो और बैलेंस शीट पर कम ही रहा है। इसके अलावा कंपनी के शेयरों पर भी काफी फोकस रहा है और इस बारे में विश्लेषण करते वक्त कंपनी को दूसरे स्रोतों से मिल रहे वित्त और इनके शेयरों पर पड़ने वाले असर पर ज्यादा गौर नहीं किया गया है।
एसेट मैनेजमेंट इंडस्ट्री में हाल ही में उतरे कई खिलाड़ियों को रेवेन्यू लैस कॉस्ट विश्लेषण काफी आसान और बढ़िया लगता है। तमाम हेज फंड भी इसी पर भरोसा कर चल रहे हैं। हाल के दिनों में निवेशकों ने कंपनी के कैपिटल स्ट्रक्चर और फंडिंग फंडामेंटलों पर ज्यादा गौर करना शुरू कर दिया है। यह एक अच्छी बात है।
यह रिटर्न ऐसे वक्त में मिले जबकि साल 1939 से लेकर 1945 तक द्वितीय विश्व युद्ध का दौर चला। इक्विटी में दैनिक आधार पर उतार-चढ़ाव पैदा होता है लेकिन इनमें लंबे वक्त में काफी अच्छे रिटर्न मिलते हैं। भारत की जीडीपी के बारे में सबसे नकारात्मक सोच रखने वाले भी मानते हैं कि अगले दो-तीन साल तक छह से सात फीसदी की वृद्धि दर रह सकती है। ऐसी स्थिति में भी देश की जीडीपी वृद्धि दर 15 फीसदी के करीब होगी। और इस स्थिति में घरेलू कॉरपोरेट जगत की बिक्री दर 15 से 20 फीसदी की रफ्तार से आगे बढ़ेगी। यह वृद्धि दर हालांकि हाल के कुछ सालों में रही रफ्तार से कम रहेगी लेकिन इस वक्त जिस तरह के नकारात्मक अनुमान लगाए जा रहे हैं उससे कहीं बेहतर स्थिति हमें देखने को मिलेगी। सबसे बड़ी बात यह है कि निवेशकों को इस वक्त ज्यादा चिंतित होने की जरूरत नहीं है। इस वक्त शेयरों में निवेश को लंबे वक्त के लिहाज से किए जाने की जरूरत है। जैसे ही वित्तीय संकट से फोकस हट कर आशंका किए जा रहे आर्थिक मंदी की ओर होगा इंडस्ट्री के बारे में पिछले कुछ सालों में किए गए अनुमानों की वास्तविकता पर सवाल होने शुरू हो जाएंगे। पिछले कुछ सालों में इक्विटी बाजार का फोकस केवल आमदनी पर रहा है। विश्लेषकों का पूरा ध्यान इस दौरान कंपनी के प्रोफाइल और नुकसान पर रहा है। इनका गौर कंपनी के कैश फ्लो और बैलेंस शीट पर कम ही रहा है। इसके अलावा कंपनी के शेयरों पर भी काफी फोकस रहा है और इस बारे में विश्लेषण करते वक्त कंपनी को दूसरे स्रोतों से मिल रहे वित्त और इनके शेयरों पर पड़ने वाले असर पर ज्यादा गौर नहीं किया गया है।
एसेट मैनेजमेंट इंडस्ट्री में हाल ही में उतरे कई खिलाड़ियों को रेवेन्यू लैस कॉस्ट विश्लेषण काफी आसान और बढ़िया लगता है। तमाम हेज फंड भी इसी पर भरोसा कर चल रहे हैं। हाल के दिनों में निवेशकों ने कंपनी के कैपिटल स्ट्रक्चर और फंडिंग फंडामेंटलों पर ज्यादा गौर करना शुरू कर दिया है। यह एक अच्छी बात है।
-सुदीप बंदोपाध्याय
( लेखक रिलायंस मनी के सीईओ हैं )
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