टैक्स निकालने के लिए सबसे पहले अपनी ग्रॉस टोटल इनकम पता करें। इसमें 1 अप्रैल 2008 से 31 मार्च 2009 तक की कुल सैलरी, हाउस प्रॉपर्टी से हुई आमदनी, बिज़नस या प्रफेशन से हुई आमदनी, कैपिटल गेंस और अन्य स्त्रोतों से आमदनी (इनकम फ्रॉम अदर सोर्सेज) को जोड़ा जाता है। 2. ग्रॉस टोटल इनकम निकालने के बाद शुरू होता है डिडक्शन का काम। चैप्टर 6-ए के अंतर्गत धारा 80 सी से लेकर 80 यू के तहत जो भी रकमें हों, उन्हें ग्रॉस टोटल इनकम में से घटाया जाता है। इस तरह हमें मिलती है नेट टैक्सेबल इनकम। 3. नेट टैक्सेबल इनकम पर ऊपर टेबल में दिए गए स्लैब के आधार पर टैक्स निकाल लिया जाता है और हमें टोटल टैक्स मिल जाता है। डिडक्शन के आइटम्स बच्चों की फीस और पीएफ में जा रही रकम ऐसे आइटम्स हैं, जिनका फायदा टैक्स बचाने में जाने-अनजाने होता ही है। सबसे पहले इन दोनों को मिलाकर जो रकम बन रही है, उसके हिसाब से टैक्स निकालकर देखें। अग भी टैक्स देनदारी बनती है तो आपको इन्वेस्ट करना होगा। इन्वेस्ट करने के लिए आपके सामने जो ऑप्शन हैं, उनके बारे में यहां जानकारी दे रहे हैं। इसके आधार पर अपनी जरूरत के हिसाब से आप बाकी रकम को इन्वेस्ट कर टैक्स बचा सकते हैं। 80 सी, 80 सीसीसी और 80 सीसीडी : इनके तहत नीचे दिए गए आइटम्स में किए गए इनवेस्टमेंट पर डिडक्शन मिलता है, लेकिन इसकी सीमा एक लाख रुपये है यानी अगर एक लाख से ऊपर का इन्वेस्टमेंट हुआ है तो भी डिडक्शन एक लाख का ही मिलेगा। नीचे दिए गए आइटम्स की रकमों को सैलरी में से घटा सकते हैं। ट्यूशन फीस : अपने किन्हीं दो बच्चों की पढ़ाई के खर्च पर आप छूट ले सकते हैं, बच्चों की उम्र कुछ भी हो। अधिकतम सीमा एक लाख रुपये है। हां, उनकी एजुकेशन फुल टाइम होनी चाहिए। स्कूल, कॉलिज, यूनिवर्सिटी लेवल पर। प्राइवेट ट्यूशन या कोचिंग आदि में दी गई फीस इसमें नहीं चलेगी। साथ ही किताबों पर होने वाले खर्च, दाखिले के वक्त दिया गया डोनेशन, कैपिटेशन फीस, एडमिशन फीस, एनुअल चार्जेज (वार्षिक शुल्क) डिवेलपमेंट चार्ज आदि भी इसमें शामिल नहीं कर सकते। ईपीएफ या जीपीएफ : अगर आप नौकरीपेशा हैं तो आपका दफ्तर हर महीने पीएफ आपकी तनख्वाह में से काटता है। पीएफ अगर प्राइवेट कंपनी काटे तो ईपीएफ कहते हैं और सरकारी दफ्तर काटे तो जीपीएफ। सैलरी से साल भर काटे गए पीएफ की रकम को आप अपनी टैक्सेबल इनकम से घटाकर इनकम टैक्स में छूट पा सकते हैं। पीपीएफ : लंबे समय के लिए इन्वेस्ट करने वालों के लिए पीपीएफ बेस्ट है। यह 15 साल की योजना है, जिसमें एक साल में अधिकतम 70 हजार रुपये की रकम जमा कराई जा सकती है। अगर इससे ज्यादा जमा कराते हैं, तो उसे बिना किसी ब्याज के वापस किया जाएगा और टैक्स छूट भी नहीं मिलेगी। एसबीआई, उसके सब्सिडियरी बैंकों, दूसरे सरकारी बैंकों या पोस्ट ऑफिस में पीपीएफ अकाउंट खुलवा सकते हैं। पीपीएफ के फायदे : इससे मिले ब्याज पर टैक्स नहीं लगता। पीपीएफ को अदालत के फैसले के तहत कुर्क नहीं किया जा सकता। यूं तो यह 15 साल के लिए होता है लेकिन जरूरत पड़ने पर छह साल बाद पैसा निकाला जा सकता है। देश की बेहद लोकप्रिय स्कीम है जिसमें करोड़ों लोगों ने पैसा लगाया हुआ है। पीपीएफ के नुकसान : बच्चों की शादी या घरेलू खर्च के लिए पैसे की जल्दी जरूरत हो तो इसकी 15 साल की अवधि अखरती है। छह साल के बाद भी पूरा पैसा नहीं निकाल सकते। स्कीम में लिक्विडिटी नहीं है यानी बैंकों की तरह जब चाहे तब पैसा निकाल पाना संभव नहीं है। जीवन बीमा पॉलिसी : अगर आपने अपने, अपने जीवनसाथी या अपने बच्चों के नाम पहले से ही जीवन बीमा पॉलिसी ली हुई है तो साल भर में आप जो भी प्रीमियम चुकाते हैं, उसे अपनी कुल टैक्सेबल इनकम में से घटा सकते हैं। अगर अब तक ऐसी पॉलिसी नहीं ली है तो जरूर ले लें। हां, टैक्स में छूट के लिए प्रीमियम की रकम बीमा राशि (सम एश्योर्ड) के 20 फीसदी से ज्यादा नहीं होनी चाहिए। कुछ पॉलिसी ऐसी हैं जिनमें तीन साल में रिटर्न मिलने लगता है। एलआईसी की 'जीवन आस्था' पॉलिसी में दो साल बाद रिटर्न मिलने लगता है। हाउसिंग लोन का रीपेमेंट (प्रिंसिपल) : हाउसिंग लोन के रीपेमेंट में जो पैसा जमा किया जाता है, उसमें कुछ रकम ब्याज की होती है और कुछ रकम प्रिंसिपल अमाउंट के तौर पर। इसमें से प्रिंसिपल अमाउंट के तौर पर साल भर में अदा की जा रही रकम को भी आप अपनी टैक्सेबल इनकम से घटा सकते हैं। एनएससी : पोस्ट ऑफिसों द्वारा जारी एनएससी ले सकते हैं। ये 100 रुपये, 500 रुपये, एक हजार रुपये, पांच हजार रुपये और 10 हजार रुपये के मूल्य वर्ग में जारी किए जाते हैं। साल के दौरान मिला ब्याज दोबारा इन्वेस्ट हुआ माना जाता है और धारा 80 सी के तहत कटौती के योग्य होता है। इस पर 8 फीसदी ब्याज मिलता है। यानी 10 हजार रुपये इन्वेस्ट करने पर छह साल बाद 16 हजार रुपये मिलेंगे। एनएससी के फायदे : सरकारी सिक्यूरिटी है और पूरी तरह सेफ है। छह साल के बाद मैच्योर हो जाते हैं, जबकि पीपीएफ 15 साल में मैच्योर होता है। नुकसान : इसके ब्याज पर टैक्स लगता है। पैसा छह साल तक फंस जाता है। छह साल से पहले पैसा नहीं निकाला जा सकता। पीपीएफ पर एनएससी के मुकाबले ज्यादा ब्याज मिलता है क्योंकि पीपीएफ के ब्याज पर टैक्स नहीं लगता और एनएससी के ब्याज पर लगता है। फिक्स्ड डिपॉजिट : एफडी के नफा-नुकसान दोनों है। अगर पांच साल या ज्यादा अवधि के लिए एफडी कराई है तो 80 सी के तहत छूट मिल जाएगी। लेकिन इस पर जो ब्याज मिलता है, उस पर टैक्स देना पड़ता है। प्राइवेट कंपनी की एफडी पर किसी तरह का टैक्स रिबेट नहीं होता। इन्शुअरन्स कंपनियों के पेंशन प्लान : एलआईसी का जीवन सुरक्षा, आईसीआईसीआई प्रूडेंशल लाइफ इन्शुअरन्स का लाइफटाइम पेंशन, अवीवा लाइफ इन्शुअरन्स का पेंशन प्लस, टाटा एआईजी इन्शुअरन्स का निर्वाण प्लस कुछ पॉप्युलर पेंशन स्कीम हैं जिनमें इन्वेस्ट किया जा सकता है। पोस्ट ऑफिस टाइम डिपॉजिट : इस स्कीम में छूट का फायदा लेने के लिए पांच साल के लिए पैसे इन्वेस्ट करने होंगे। इसमें ब्याज 7.5 फीसदी है। सीनियर सिटिजन्स सेविंग स्कीम : 60 साल से ज्यादा उम्र का कोई भी व्यक्ति यह खाता खोल सकता है। किसी भी पोस्ट ऑफिस या अधिकृत बैंकों में खाता खुलवाया जा सकता है। यह पांच साल में मैच्योर होता है। ब्याज की दर 9 फीसदी है, जो तिमाही जोड़ दी जाती है। इसमें एक हजार रुपये के गुणक में 15 लाख रुपये तक जमा कराए जा सकते हैं। म्यूचुअल फंड : बाजार में कई कंपनियों के म्यूचुअल फंड हैं। ज्यादातर में मुनाफा करीब-करीब बराबर ही है। बस ध्यान रखें कि जिन म्यूचुअल फंड्स में इन्वेस्टमेंट करें, वे इक्विटी लिंक्ड होने चाहिए। गवर्नमेंट सिक्यूरिटी फंड में रकम लगाने पर 80-सी के तहत फायदा नहीं मिलता। शेयर मार्किट से जुड़े होने के कारण म्यूचुअल फंड्स में उतार-चढ़ाव का खतरा बना रहता है। बेहतर रिटर्न के लिए तीन से पांच साल तक लग सकते हैं, लेकिन थोड़े वक्त के इन्वेस्टमेंट के लिए भी म्यूचुअल फंड अच्छा विकल्प है। यूनिट लिंक्ड इन्शुअरन्स प्लान : इसमें इन्वेस्टमेंट के फायदों के साथ-साथ बीमा सुविधाएं भी मिलती हैं। इसमें इन्वेस्टमेंट यूनिट्स (शेयरों) में किया जाता है। यूलिप दो अलग-अलग अवधियों 10 और 15 साल के लिए उपलब्ध है। कुछ एक्सपर्ट यूलिप में इन्वेस्ट करने की सलाह नहीं देते क्योंकि यह इन्शुअरन्स और इन्वेस्टमेंट का मिक्स्चर है। वैसे भी इन्वेस्टमेंट और इन्शुअरन्स अलग-अलग करना ही बेहतर होता है। फिर भी यूलिप में इन्वेस्ट करना ही है तो स्कीम, कंपनी और फंड मैनिजर के ट्रैक रेकॉर्ड का अच्छी तरह एनालिसिस कर लें और किसी प्रफेशनल की मदद लें। इक्विटी लिंक्ड सेविंग स्कीम्स (ईएलएसएस) : अगर आप टैक्स बचाने के साथ-साथ अपना पैसा स्टॉक मार्किट में लगाना चाहते हैं, तो ईएलएसएस एक अच्छा ऑप्शन है। एसबीआई मैग्नम टैक्सगेन ईएलएसएस काफी पॉप्युलर है। ईएलएसएस की खासियत यह है कि इसमें सिर्फ तीन साल के लिए पैसा लॉक होता है, लेकिन पीपीएफ और एनएससी के मुकाबले यह रिस्की है। इसमें 30 से 40 फीसदी तक रिटर्न मिल सकता है, जबकि पीपीएफ और एनएससी में 8 प्रतिशत रिटर्न ही मिलता है। बैंकों और दूसरी संस्थाओं के इंफ्रास्ट्रक्चर बॉण्ड : आरबीआई, आईडीबीआई, आईसीआईसीआई, आरईसी और पीएफसी जैसी संस्थाएं इस तरह के बॉण्ड जारी करती हैं। इन बॉण्ड्स की वैल्यू महंगाई दर और ब्याज दरों के मुताबिक घटती-बढ़ती रहती है। अगर ब्याज दरें बढ़ेंगी तो इन बॉण्ड्स का रेट कम हो जाएगा और ब्याज दरों के घटने से इनकी वैल्यू बढ़ेगी। नाबार्ड लंबी अवधि के लिए जीरो कूपन बॉण्ड जारी करता है। यह 10 साल के लिए होता है। इंफ्रास्ट्रक्चर बॉण्ड बच्चों के भविष्य की प्लानिंग के हिसाब से अच्छे होते हैं। ऊपर दिए गए आइटमों में 80 सी के तहत एक लाख रुपये की सीमा के अंदर छूट मिलती है। इसके अलावा नीचे दिए गए आइटमों में भी डिडक्शन मिलता है, जो एक लाख की सीमा से अलग होता है। हाउसिंग लोन रीपेमेंट में ब्याज की रकम (24 बी) : हाउसिंग लोन के कुल अमाउंट में से ब्याज की रकम पर भी डिडक्शन मिलता है। इसकी सीमा डेढ़ लाख है। डेढ़ लाख तक अगर ब्याज के तौर पर चुकाया जा रहा है तो उस पर डिडक्शन मिलेगा। मेडिकल इन्शुअरन्स प्रीमियम (80 डी) : अगर आप खुद के लिए, अपने जीवनसाथी के लिए या आश्रित बच्चों के लिए मेडिकल इन्शुअरन्स लेते हैं, तो इसमें 15 हजार का डिडक्शन मिलेगा। इसके अलावा अगर कोई अपने माता-पिता के लिए मेडिकल इन्शुअरन्स लेता है तो उस अमाउंट पर अलग से डिडक्शन मिलेगा। इसकी सीमा 15,000 रुपये है। अगर माता-पिता सीनियर सिटिजन हैं, तो यह सीमा 20 हजार रुपये होगी। हायर एजुकेशन के लिए लिया गया लोन (80 ई) : हायर एजुकेशन लोन को चुकाने में ब्याज के तौर पर जितनी रकम जा रही है, उतना डिडक्शन मिलेगा। यह कटौती सिर्फ 8 साल तक या जब तक ब्याज पूरा वापस न हो, में से जो कम हो, तब तक मिलेगी। हायर एजुकेशन से मतलब है इंजीनियरिंग, आर्किटेक्चर, मैनिजमंट और मेडिकल में ग्रैजुएट और पोस्ट-ग्रैजुएट कोर्स या साइंस विषयों में पोस्ट-ग्रैजुएट कोर्स। विकलांग आश्रितों की चिकित्सा (80 डीडी) : एक या ज्यादा विकलांग आश्रितों की चिकित्सा, प्रशिक्षण और पुनर्वास के लिए किया गया खर्च और बीमा कंपनियों की योजना में विकलांग आश्रित के लिए जमा रकम। इन दोनों उद्देश्यों के लिए असल खर्च को ध्यान में रखे बिना कुल 50 हजार रुपये की कटौती मिलेगी। अगर कुल खर्च और योजना में जमा रकम 45 हजार रुपये है तो भी 50 हजार की कटौती मिलेगी। गंभीर रूप से विकलांग के मामले में यह रकम 75 हजार हो सकती है। मेडिकल एक्सपैंस (80 डीडीबी) : कुछ खास बीमारियों के इलाज पर साल के दौरान असल भुगतान की रकम पर कटौती मिलेगी। ये खास बीमारियां हैं :- न्यूरॉलजिकल डिजीज, कैंसर, एड्स, हीमोफीलिया, थैलसीमिया आदि। असल भुगतान की रकम या 40 हजार रुपये में से जो भी कम होगा, उतना डिडक्शन मिलेगा। सीनियर सिटिजन के मामले में असल भुगतान की रकम या 60 हजार रुपये में से जो भी कम होगा, उतना डिडक्शन मिलेगा। एडवांस टैक्स अगर किसी को लगता है कि चालू वर्ष में उसकी टैक्स की देनदारी 5,000 रुपये से ज्यादा की होगी तो उसे एडवांस टैक्स जमा कराना पड़ेगा। इसका कायदा यह है कि 15 सितंबर तक टैक्स की कुल अमाउंट का 30 प्रतिशत टैक्स जमा हो जाना चाहिए। उसके बाद 15 दिसंबर तक टैक्स का 60 प्रतिशत जमा हो जाना चाहिए और 15 मार्च तक सारा टैक्स जमा हो जाना चाहिए। जो आमदनी 15 मार्च के बाद हो रही है, उसका टैक्स 31 मार्च तक जमा कर देना चाहिए। अगर डेट निकलने के बाद याद आता है कि एडवांस टैक्स जमा कराना था, तो टैक्स (जितना उस किश्त में जमा होना था) पर 2 फीसदी मासिक की दर से पेनल्टी लगेगी। पेनल्टी के साथ जमा कर सकते हैं। एडवांस टैक्स जमा न करने की स्थिति में इस दर के हिसाब से लगे ब्याज के साथ टैक्स की रकम जमा कराई जा सकती है। प्रमुख डेट्सः- एडवांस टैक्स जमा कराने की तारीखें :- 15 सितंबर, 15 दिसंबर और 15 मार्च इनकम टैक्स रिटर्न फाइल करने की आखिरी तारीखः- 31 जुलाई अगर इनकम में बिज़नस या प्रफेशन की इनकम भी शामिल हो, जिसके लिए टैक्स ऑडिट कराने की जरूरत हो (40 लाख या इससे ज्यादा का टर्नओवर या कारोबार) तो रिटर्न दाखिल करने की आखिरी तारीखः- 30 सितंबर
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