Sunday, May 31, 2009

Reliance Infrastructure Fund


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Jinendra Kumar Porwal (Mutual Fund & Insurance Advisor)Riddhi Siddhi's Estate 1, Gokul Nagar (Commercial) In Front of Bohra Ganesh Ji Temple, Udaipur (Rajasthan) -313001 India
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Friday, May 22, 2009

लॉट क्या होता है और क्या होती है मार्जिन कॉल?

लॉट क्या होता है?
दरअसल नकद बाजार की तरह वायदा बाजार में कोई भी शेयर मनमानी संख्या में नहीं खरीदा जा सकता। एक्सचेंज यह तय करता है कि कौन सा शेयर कम से कम कितनी संख्या में खरीदा जा सकता है। इसी संख्या को लॉट कहते हैं। वायदा बाजार में कोई भी शेयर लॉट में ही खरीदा जाता है। वैसे तो इस बारे में कोई पक्का नियम नहीं है, लेकिन आम तौर पर एक लॉट शेयरों की कीमत 2 लाख रुपए के आसपास होती है। अभी हाल ही में एनएसई ने शेयरों के लॉट की समीक्षा की और लॉट में संख्या पहले के मुकाबले काफी कम की गई। इसका कारण यही था कि पिछले कुछ सालों की बढ़त के कारण एक-एक लॉट के शेयरों की कीमत 6-7 लाख रुपए तक पहुंच गई थी।

वायदा कारोबार में मार्जिन क्या होता है?

लॉट में शेयर खरीदना जाहिर है काफी महंगा होता है। इसलिए शेयर ब्रोकर अपने ग्राहकों को मार्जिन की सुविधा देते हैं। मार्जिन के तहत शेयरों की साख के लिहाज से एक खास प्रतिशत रकम निवेशक को देनी होती है, जबकि बाकी रकम ब्रोकर निवेशक को देता है। आम तौर पर निवेशकों को अलग-अलग शेयरों के लिहाज से 20-30 फीसदी मार्जिन रखना होता है, जबकि 70-80 फीसदी कर्ज ब्रोकर देता है।

लॉन्ग और शॉर्ट किसे कहते हैं?

लॉन्ग होना यानी कोई शेयर में खरीदारी करना और शॉर्ट करना यानी कोई शेयर आपके पास न हो, लेकिन ब्रोकर से कर्ज लेकर उसे बेचना।

मार्जिन कॉल क्या होती है?

मान लीजिए आपने 5,000 पर एक लॉट निफ्टी अप्रैल लॉन्ग किया। निफ्टी के एक लॉट में 50 इकाइयां होती हैं। यानी आपको पूरे लॉट के लिए 2,50,000 रुपए देने होंगे। अब आपका ब्रोकर आपको 30 फीसदी मार्जिन जमा करने को कहता है यानी आप 50 हजार रुपए जमा करते हैं। दो लाख रुपए ब्रोकर आपके पोजिशन पर आपको कर्ज देता है। अब बाजार गिरने लगा और निफ्टी अप्रैल पहुंच गया 4,000 हजार पर। यानी आपकी पोजिशन रह गई 2,00,000 रुपए की। अब यहां से अगर निफ्टी थोड़ा भी नीचे गया और आपने मार्जिन बढ़ाने से इंकार कर दिया, तो सौदा काटने के बाद भी घाटा ब्रोकर का होगा। ऐसे में जहां निफ्टी 4,100 से नीचे फिसलेगा, आपका ब्रोकर आपको तुरंत मार्जिन जमा कराने को कहेगा। अगर निफ्टी के 4,000 तक आने तक आप रकम नहीं जमा करा सके, तो वह 4,000 पहुंचते ही सौदा काट देगा ताकि उसे दिए गए कर्ज की रकम वापस मिल जाए।

Monday, May 18, 2009

'इस साल 20,000 तक जा सकता है सेंसेक्स'

मुंबई : सोमवार को बाजार खुलते ही सूचकांकों में आई असाधारण तेजी को देखते हुए अधिकतर निवेशकों की उम्मीदें बढ़ गई हैं। आने वाले समय में बाजार के अच्छा रुख दिखाने की उम्मीद के पीछे बेहतर बुनियादी कारकों का भी हाथ है। अब बाजार पर वैश्विक मंदी के असर को लेकर चिंता पहले के मुकाबले कम हो गई है।

ईटी ने बाजार के रुझान को लेकर ब्रोकरेज और म्यूचुअल फंडों के एक दर्जन वरिष्ठ अधिकारियों पर सर्वे किया। सर्वेक्षण के मुताबिक 2009 के अंत तक बीएसई सेंसेक्स के 15,000-20,000 के दायरे में रहने की उम्मीद है। ब्रोकरेज फर्म मोतीलाल ओसवाल फाइनेंशियल सर्विसेज लिमिटेड के वाइस-प्रेसिडेंट (इक्विटी) मनीष संथालिया ने कहा, 'बाजार को लेकर हम बहुत आशावान मौजूदा स्तरों पर बाजार में पूंजी का आना शुरू हो गया है। मार्च 2010 तक बाजार में विदेशी निवेश का आंकड़ा 17 अरब डॉलर (2007 में हुआ निवेश) के स्तर को पार कर जाने की संभावना है।' संथालिया के मुताबिक इस साल के अंत तक सेंसेक्स के 16,000-18,000 के दायरे में रहने की संभावना है।

ब्रोकरों का कहना है कि भारतीय बाजार में फिर से विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफआईआई) में रुचि बढ़ने से आने वाले दिनों में घरेलू बाजार के सूचकांकों में तेजी का रुख बना रहेगा। भारत में इस साल अप्रैल से अभी तक करीब 17,000 करोड़ रुपए का निवेश हो चुका है। विदेशी निवेशकों की सूची में भारत का स्थान कोरिया, जापान, ताईवान और फिलीपींस से ऊपर है। शिनसेई एसेट मैनेजमेंट के सीआईओ एन सेतुरमण अय्यर ने कहा, 'विदेशी निवेशक अब भारतीय बाजार को लेकर पहले के मुकाबले ज्यादा गंभीर हो गए हैं। इसकी एक बड़ी वजह यह है कि अगले पांच साल के राजनीतिक अनिश्चितता को लेकर चिंता खत्म हो गई है।'

सेतुरमण के मुताबिक सोमवार को घरेलू बाजार में आई तेजी के बाद शेयरों के प्राइस-टू-अर्निंग(पीई) में तीन से चार गुना तक की बढ़ोतरी हुई होगी। उन्होंने कहा, 'यदि आप 2010 में आय के अनुमान को देखें तो आप इतने ऊंचे पीई को जायज नहीं ठहरा सकते। लेकिन यदि आप अगले वित्त वर्ष में आय में 15 फीसदी वृद्धि के अनुमान पर ध्यान दें तो शेयरों का मौजूदा पीई स्तर वाजिब दिखाई देता है। संभवत: यह उन कारणों में से एक है, जिसके चलते विदेशी निवेशक भारतीय बाजार में लंबी अवधि के लिए निवेश कर रहे हैं।' सेतुरमण का मानना है कि 2009 के अंत तक हम सेंसेक्स को 17,000-17,500 के दायरे में देख सकते हैं।

ईटी ने बाजार के जिन विशेषज्ञों से बात की है, उनमें से अधिकतर का मानना है कि छोटी अवधि यानी 8-10 कारोबारी सत्रों में बाजार में थोड़ी गिरावट आ सकती है। इस बारे में आम राय यह है कि सितंबर के मध्य तक बाजार में तेजी के ठोस दौर की शुरुआत से पहले अगले दो महीने में बाजार में करीब 1,500 अंक की गिरावट आएंगी। बोनांजा पोर्टफोलियो के फंड मैनेजर अनमोल शेखरी ने कहा, 'बाजार के लिए बजट से पहले और बाद का समय महत्वपूर्ण होगा। हमें उम्मीद है कि सरकार कुछ साहसिक फैसले लेगी। सरकार राजकोषीय घाटे में कमी लाने के उपायों के रूप में व्यक्तिगत और कॉरपोरेट टैक्स की दर में भी बढ़ोतरी कर सकती है।' शेखरी का मानना है कि इस साल के अंत तक सेंसेक्स 14,500 के करीब रहेगा।

ब्रोकरों और फंड मैनेजरों के मुताबिक आने वाले दिनों में निवेशकों की नजरें इफ्रास्ट्रक्चर, रियल्टी, बैंकिंग और बीमा, स्टील और सीमेंट क्षेत्रों पर रहेगी। इंफ्रास्ट्रक्चर क्षेत्र में निवेश में बढ़ोतरी होगी। बैंकिंग और बीमा क्षेत्र में सरकार सुधार की प्रक्रिया आगे बढ़ाएगी।
-शैलेश मेनन

जल्द लौट सकती है रियल्टी सेक्टर के शेयरों की रौनक

अपूर्व गुप्ता/सुप्रिया वर्मा मिश्रा

मुंबई : क्या रियल एस्टेट शेयरों की किस्मत सचमुच पलटने वाली है? कम-से-कम विश्लेषकों को तो इसका उत्तर सकारात्मक ही लगता है। उनकी नजर में लगभग 18 महीने तक दूसरे सेक्टरों से पिछड़ने के बाद अब रियल्टी सेक्टर के लिए सकारात्मक संकेत नजर आने लगे हैं। इसके बावजूद उनमें आम राय यह है कि फिलहाल सेक्टर के सिर्फ सेंटीमेंट में सुधार आया है। और जब तक निवेशक शेयरों में खरीदारी की दिलचस्पी नहीं दिखाते तब तक यह सेक्टर तेजी से बढ़ते बाजार से बेहतर नहीं कर पाएगा।

इस समय ज्यादातर शेयरों के भाव मार्च के निचले स्तर से दोगुना हो चुके हैं। सोमवार को जिन शेयरों के भाव में सबसे ज्यादा उछाल आया, उनमें आधे शेयर रियल्टी या इससे जुड़े सेक्टर के हैं। विश्लेषकों के मुताबिक एक दिन शानदार प्रदर्शन होने का मतलब यह नहीं कि सेक्टर की कायापलट हो गई है और इसकी रेटिंग में बदलाव किया जाना चाहिए। लेकिन उनका यह भी कहना है कि पिछले कुछ महीनों में रियल्टी शेयरों में निवेश के प्रति जोखिम को लेकर निवेशकों का नजरिया बेहतर हुआ है।

सेंट्रम ब्रोकिंग में पीएमएस के वाइस प्रेसिडेंट मेहराबून जमशेद ईरानी कहते हैं, 'इस सेक्टर को लेकर हमारा नजरिया सकारात्मक हुआ है। समस्या दो कंपनियों, डीएलएफ और यूनिटेक को लेकर पैदा हुई थी। इन दोनों कंपनियों पर कर्ज का काफी बोझ था। निवेशकों ने दोनों को दरकिनार कर दिया था। अब नकदी की उपलब्धता बेहतर हुई है और बाजार में धीरे-धीरे पैसा आ रहा है। इससे एक बार फिर रियल्टी शेयरों में निवेशकों की दिलचस्पी हो सकती है। यह जरूर है कि साल 2009 की पहली छमाही रियल्टी कंपनियों के लिए काफी मुश्किल रही है लेकिन आने वाले दिनों में महानगरों में कामकाज कर रही रियल्टी कंपनियों को कर्ज मिलने लगेगा।'

डेट रिस्ट्रक्चरिंग करने के अलावा बड़े अपार्टमेंट के बजाय छोटे फ्लैट पर जोर देने और ब्याज दरों में कमी आने से रियल्टी कंपनियों को कारोबार में बने रहने में मदद मिली है। कई रियल एस्टेट डेवलपरों ने प्रॉपर्टी की बिक्री बढ़ाने और तैयार प्रॉपर्टी बेचने के लिए दाम में कमी की है। इसके साथ ही रियल एस्टेट कंपनियां अब अपने शेयरों के दाम लगाने में ज्यादा व्यावहारिक हो गई हैं।

उदाहरण के लिए यूनिटेक ने 32.5 करोड़ डॉलर यानी 1,621 करोड़ रुपए की रकम जुटाने के लिए क्यूआईपी के जरिए 38.5 फीसदी शेयर बेचे हैं। जनवरी 2008 में इसके शेयरों के भाव 550 रुपए के उच्च स्तर पर थे और सौदा उससे काफी निचले स्तर पर हुआ है। इसी तरह हाल ही में डीएलएफ के प्रमोटरों ने 230 रुपए प्रति शेयर की दर से लगभग 10 फीसदी शेयर बेचे हैं। इस दर पर कंपनी को 3,860 करोड़ रुपए की रकम हासिल हुई। जब बाजार में तेजी अपने चरम पर थी, तब इसके शेयर 1,205 रुपए के उच्च स्तर तक पहुंचे थे। इसी तरह, इंडियाबुल्स रियल्टी और शोभा डेवलपर्स जैसी कंपनियां बाजार से फंड जुटाने की संभावनाएं तलाश रही हैं।

विशेषज्ञ रियल्टी सेक्टर की स्थित में लगातार सुधार आने की संभावना से इनकार नहीं कर रहे, लेकिन इसके सामने कई चुनौतियां हैं। सीबी रिचर्ड एलिस के साउथ एशिया सीएमडी अंशुमान मैगजीन कहते हैं, 'चुनावी नतीजों से बाजार के सेंटीमेंट में खासा सुधार आएगा और इसमें कंपनियों, निवेशकों और आम जनता का भरोसा जगेगा। यह अलग बात है कि इससे कंपनियों की बिक्री पर कोई खास असर होने की संभावना नहीं है।'
-अपूर्व गुप्ता/सुप्रिया वर्मा मिश्रा

ब्रेकआउट क्या होता है?

जब किसी शेयर का भाव ट्रेंड लाइन को ऊपर या नीचे की ओर तोड़ता है, तो उसे ब्रेकआउट कहते हैं। ट्रेंड लाइन को ऊपर की ओर तोड़ने पर यह पॉजिटिव ब्रेकआउट कहलाता है, जबकि नीचे की ओर तोड़ने पर इसे निगेटिव ब्रेकआउट कहते हैं।

ब्रेकआउट का इस्तेमाल आम तौर पर अपने वर्तमान सौदे काटने के लिए और उल्टी पोजिशन बनाने के लिए किया जाता है। जैसे अगर एक ट्रेडर ने रिलायंस में तेजी का सौदा (लॉन्ग) किया है और किसी खास भाव पर उसमें निगेटिव ब्रेकआउट आए, तो यह संकेत है कि ट्रेडर को तेजी का अपना सौदा काट कर मंदी का सौदा (शॉर्ट) कर लेना चाहिए। इसके उलट अगर ट्रेडर ने मंदी का सौदा कर रखा है, तो जैसे ही पॉजिटिव ब्रेकआउट उसे अपना सौदा कवर कर तेजी का सौदा कर लेना चाहिए।



फॉल्स ब्रेकआउट की क्या पहचान क्या है?

बहुत बार पॉजिटिव ब्रेकआउट आने के बाद शेयर वापस ट्रेंड लाइन के नीचे लौट जाता है। इसी तरह निगेटिव ब्रेकआउट भी कई बार गलत साबित होता है। इस तरह के ब्रेकआउट को फॉल्स ब्रेकआउट कहते हैं।

फॉल्स ब्रेकआउट से बचने के लिए ट्रेडरों को चाहिए कि जैसे ही वे ब्रेकआउट के कारण कोई नया सौदा करें, वैसे ही ब्रेकआउट के स्तर को अपना स्टॉपलॉस बना लें। वैसे फॉल्स ब्रेकआउट को पहचानने के लिए वॉल्यूम पर ध्यान देना बहुत जरूरी है। सही ब्रेकआउट में आम तौर पर शेयर का वॉल्यूम उसके औसत वॉल्यूम से काफी ज्यादा होता है। बगैर वॉल्यूम के आए ब्रेकआउट ज्यादातर फॉल्स होते हैं।

त्रिभुज फॉर्मेशन क्या होता है?

जब किसी शेयर की कीमत लगातार लोअर टॉप और हाइअर बॉटम बनाती है तो इसका ट्रेंड लाइन एक त्रिभुज के आकार का हो जाता है। इसमें ऊपर या नीचे किसी भी तरफ ब्रेकआउट आने की संभावना होती है। यह जरूर है कि किसी भी तरफ आने वाला ब्रेकआउट जोरदार होता है। लेकिन ब्रेकआउट के सही होने के लिए जरूरी है कि वह त्रिभुज की लंबाई के दो-तिहाई हिस्से के अंदर ही आए। अगर यह आखिरी के एक तिहाई हिस्से से आता है, तो इसे सही ब्रेकआउट नहीं माना जाता।

Sunday, May 17, 2009

जनादेश की खुशी में छलांग लगा सकता है शेयर बाजार

मुंबई : सेंसेक्स ने 18 मई 2004 को 8.2 फीसदी की लंबी छलांग लगाई थी। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी नेता ए. बी. वर्धन की विनिवेश के खिलाफ की गई क्या बुल रन फिर शुरू होगा? टिप्पणी को दरकिनार करते हुए यूपीए सरकार ने इस उछाल का आधार तैयार किया था। ठीक पांच साल बाद अगर शीर्ष ब्रोकर और फंड मैनेजरों के उत्साह से संकेत लिए जाएं तो सोमवार को भी शेयर बाजार कुछ इसी तरह का प्रदर्शन दोहरा सकता है।

कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के लिए स्पष्ट जनादेश ने बाजार को सुखद आश्चर्य दिया है लेकिन निवेशक इस बात से ज्यादा उत्साहित हैं कि नई सरकार को अपने दिल की धड़कन बनाए रखने के लिए वाम दलों के पेसमेकर की जरूरत नहीं होगी।

बाजार के जानकारों को अगले कुछ कारोबारी सत्रों के दौरान बाजार में जमकर खरीदारी होने की उम्मीद है क्योंकि कई विदेशी और स्थानीय फंड मैनेजर अब बाजार में कूदेंगे जो चुनावों के बाद राजनीतिक अनिश्चितता की आशंका से खौफजदा थे। एसेट के आधार पर देश के सबसे बड़े म्यूचुअल फंड रिलायंस म्यूचुअल फंड के प्रमुख-इक्विटी मधुसूदन केला ने कहा, 'वैश्विक स्तर पर निवेशक काफी भ्रम में हैं क्योंकि निवेश करने के लिए ज्यादा अच्छे बाजार नहीं हैं। अब हम भारत में नकदी का खुला प्रवाह देखेंगे क्योंकि स्पष्ट जनादेश सरकार को कुछ अहम आथिर्क सुधारों को आगे ले जाने में मदद देगा जिससे मौजूदा हालात में भारत सर्वश्रेष्ठ बाजारों में से एक का रूप ले लेगा।'

सोमवार को इंडेक्स शुक्रवार के स्तर से 4-5 फीसदी ऊपर खुलने की उम्मीद लगाई जा रही है। ब्रोकरों का कहना है कि इससे डे-टेडर के लिए मौके सीमित हो सकते हैं जो बाजार में लंबा दांव खेलकर मुनाफा बटोरने की जुगत में हैं। उनकी सलाह है कि लंबी अवधि के लिए पैसा लगाने वालों को भी सतर्कता के साथ शेयर चुनना चाहिए।

डीएसपी ब्लैकरॉक के चेयरमैन हेमेंद्र कोठारी ने कहा, 'अगले कुछ दिनों के लिए बाजार में मूड बढि़या रहा है लेकिन इस बात का ख्याल रखना चाहिए कि सरकार के सामने कई चुनौतियां भी खड़ी हैं।' कोठारी को लगता है कि निवेशकों को ऊंचे स्तरों पर खरीदारी करते वक्त संयम बरतना चाहिए। उन्होंने कहा कि राजकोषीय घाटा, नौकरियों पर खतरा, ऊंची ब्याज दरें और मांग में मंदी ऐसे कुछ अवरोध हैं जिन पर करीबी निगाह रखनी होगी। कोठारी ने कहा, 'वैश्विक वित्तीय बाजारों से बदतर खबरों का सिलसिला अभी थमा नही है।'

ज्यादातर खिलाडि़यों का मानना है कि बीमा सेक्टर में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का दायरा बढ़ाना और पेंशन सुधार वित्तीय बाजार के सुधारों की दिशा में यूपीए का पहला कदम होगा। 15वीं लोकसभा में अगर पूर्ववर्ती सहयोगी वामपंथी दलों का महत्व बरकरार रहता तो कांगेस को इस मोर्चे पर समझौता करना होता लेकिन अब रास्ता खुला है। राजनीतिक चिंताओं को दरकिनार करते हुए विदेशी संस्थागत निवेशकों ने बीते एक महीने के दौरान 3 अरब डॉलर से ज्यादा की खरीदारी की है।

घरेलू फंड हाउस ने हालांकि सुरक्षित दांव खेला और उनके पोर्टफोलियो की ज्यादातर इक्विटी स्कीम का 10-30 फीसदी हिस्सा नकदी में है। बाजार के विशेषज्ञों का कहना है कि स्थानीय फंड मैनेजरों को निवेश करने पर मजबूर होना होगा क्योंकि वे प्रदर्शन के मोचेर् पर और पिछड़ने का जोखिम मोल नहीं ले सकते। पंडितों का कहना है कि बाजार की तेजी को बिकवालों की गैर-मौजूदगी और हवा देगी क्योंकि निवेशक कम से कम कुछ वक्त के लिए शेयर अपने पास रखेंगे। फर्स्ट ग्लोबल कॉर्प के वाइस चेयरमैन और प्रबंध निदेशक शंकर शर्मा ने कहा, 'हालात फिलहाल उत्साहजनक हैं।'

Friday, May 15, 2009

ज्यादा रिटर्न के लिए जरूरी है डेट और इक्विटी का सही मिश्रण

ऐसे वक्त जब ज्यादातर निवेशक इक्विटी बाजारों में भारी गिरावट और इसके नए निचले स्तरों के लिए खुद को तैयार कर रहे हैं, वहीं दुनिया भर के इंडेक्स ने बीते चार-पांच सप्ताहों में बढिया वापसी दिखाई है। ज्यादातर बाजारों से रिकवरी के साफ संकेत मिलने अभी बाकी हैं, लेकिन इस वापसी ने यह उम्मीद तो जरूर बांधी है कि बाजारों के लिए भविष्य निराशाजनक नहीं है। कम से कम आने वाले 12 महीने के लिए तो यह कहा ही जा सकता है। बहरहाल राहत की यह रैली निवेशकों के बीच इतना विश्वास जगाने में अभी कामयाब नहीं हुई है कि वे दौड़कर अपना सारा पैसा इक्विटी में लगा दें। आखिरकार, ऐसे कई लोग हैं जो 2008, खास तौर से अक्टूबर में मची तबाही का दर्द नहीं भूले हैं।

मौजूदा वित्तीय हालात से निपटने का एक सुरक्षित विकल्प अपने पोर्टफोलियो को इक्विटी और डेट के बीच सही तरीके से बांटना है। वित्तीय योजनाकार हमेशा से ऐसे आवंटन को लंबी अवधि के लिए सही बताते रहे हैं लेकिन यह सभी श्रेणियों के निवेशकों के बीच लोकप्रिय रणनीति नहीं है। कारण जानना आसान है। निवेश के फैसलों की दिशा तय करने में जरूरत या जोखिम सहने की क्षमता से ज्यादा बाजार का उत्साह अहम भूमिका निभाता है लेकिन मौजूदा वक्त इन दोनों विकल्पों के बीच सही संतुलन के बनाने के लिहाज से मुफीद है।

एक आसान विकल्प बैलेंस्ड फंड चुनना है जो 35 फीसदी अंश डेट जबकि शेष इक्विटी में लगाता है। या फिर यह हो सकता है कि व्यक्तिगत आधार पर डेट और इक्विटी के बीच फंड आवंटित किया जाए। अगर कोई व्यक्ति डेट और इक्विटी के बीच संतुलन चाहता है तो वह बाजार की स्थिति को देखते हुए डेट के पक्ष में 50 फीसदी तक रकम रख सकता है।

दुर्भाग्य से ऐसे कम ही लोग होते हैं जो इस संतुलन तक पहुंच पाते हैं। वास्तव में आपको ज्यादातर ऐसे निवेशक मिलेंगे जो इनमें से एक विकल्प के पीछे दौड़ रहे होंगे। इसके फलस्वरूप एक समूह जहां ज्यादा जोखिम वाले आवंटन की जद में आ जाता है, वहीं दूसरा कम जोखिम वाले आवंटन के कगार पर पहुंच जाता है। दूसरा समूह मौजूदा हालात जैसे वक्त में कामयाब हो सकता है लेकिन लंबी अवधि में ज्यादा रिटर्न बटोरने का मौका वह चूक सकता है।

डेट से खास लगाव रखने वाले लोगों के लिए आने वाले एक से दो साल में कोई उम्मीद नहीं दिख रही क्योंकि अधिक ब्याज दरों का चलन पीछे छूट चुका है। जो लोग फिक्स्ड डिपॉजिट पर निर्भर कर रहे हैं, उन्हें बैंकों से परे देखते हुए कंपनी डिपॉजिट पर गौर करना चाहिए। कंपनियों के मामले में नकदी एक बड़ा मुद्दा है, क्योंकि बैंक अब भी सतर्क रुख दिखा रहे हैं। नतीजतन ज्यादा केडिट रेटिंग वाली कंपनियों को भी नकदी के संकट का सामना करना पड़ रहा है। डेट निवेशकों के लिए कुछ अन्य विकल्प डाक घर मंथली इनकम प्लान, इनकम फंड और पब्लिक प्रॉविडेंट फंड जैसे हो सकते हैं लेकिन मासिक आमदनी का इंतजाम डाक घर के वित्तीय उत्पाद ही करते हैं। इस श्रेणी में म्यूचुअल फंड के मासिक इनकम प्लान भी एक विकल्प हो सकते हैं लेकिन इनके साथ जोखिम जुड़ा रहता है।
-श्रीकला भाष्यम

क्या है महंगाई दर और कैसे होती है इसकी गणना

मुद्रास्फीति दर शून्य के करीब खड़ी है। ज्यादा वक्त नहीं बीता है जब महंगाई दर का 0.44 फीसदी तक लुढ़कना नामुमकिन सा लग रहा था। लेकिन आज यह हकीकत है। मुद्रास्फीति दर ने गिरावट के मामले में 32 साल का रेकॉर्ड तोड़ दिया है। आप और क्या उम्मीद कर सकते हैं?

सबसे पहले हमें यह समझने की जरूरत है कि मुद्रास्फीति दर के आंकड़े कैसे आंके जाते हैं? देश की महंगाई दर थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यूपीआई) के आधार पर आंकी जाती है। इस सूचकांक का इस्तेमाल उन उत्पादों की औसत कीमत स्तर में बदलाव आंकने के लिए किया जाता है जिनका कारोबार थोक बाजार में होता है। डब्ल्यूपीआई के जरिए 400 से ज्यादा कमोडिटी पर निगाह रखी जाती है। कमोडिटी बास्केट में आने वाली चीजों की समीक्षा नियमित रूप से की जाती है ताकि कुछ सामान जरूरत से ज्यादा अहमियत न रखें। डब्ल्यूपीआई तक पहुंचने के लिए निर्मित उत्पादों, ईंधन और प्राथमिक वस्तुओं के दाम का इस्तेमाल किया जाता है।

कई लोगों की दलील है कि डब्ल्यूपीआई सटीक रूप से मुद्रास्फीति के दबाव का अंदाजा नहीं देता। इसलिए कई मुल्कों ने अब कंज्यूमर प्राइस इंडेक्स (सीपीआई) की राह पकड़ ली है। सीपीआई उपभोक्ताओं की ओर से खरीदे जाने वाले उत्पादों और सेवाओं के खास सेट की वेटेड औसत कीमत को आंकने से जुड़ा सांख्यिकीय माप है।

क्या चीजें वास्तव में सस्ती हो रही हैं? महंगाई दर शून्य तक पहुंच रही है लेकिन किराने का बिल कुछ और ही संकेत दे रहा है। खाद्य सामग्री के दाम अब भी ऊंचे हैं। खाद्यान्न एक साल पहले के मुकाबले नौ फीसदी महंगा है। प्राथमिक खाद्य वस्तुओं की कीमतें अब भी चढ़ रही हैं। डब्ल्यूपीआई में गिरावट मुख्य रूप से ईंधन और मैन्युफैक्चरिंग की वजह से है। इसलिए, कम महंगाई दर के बावजूद खाद्य वस्तुओं की कीमतें ज्यादा बनी हुई हैं।

अगर यह चलन जारी रहता है तो भारतीय रिजर्व बैंक आगे कदम बढ़ाकर दरों में और कटौती कर सकता है। बेरोजगारों की तादाद बढ़ने और नौकरियों में छंटनी की वजह से भी मांग घट रही है। मांग में गिरावट मुद्रास्फीति दर को शून्य के करीब ले जाने वाला अहम कारण है।

अनिश्चित हालात में निवेश

निवेशक अब मुद्रास्फीति और कीमतों में बढ़ोतरी के चलन के आदी हो गए हैं। अपस्फीति यानी डिफ्लेशन जैसा नाम यहां ज्यादा सुना नहीं गया है। इसी वजह से कई निवेशक अतिरिक्त रकम लगाने के लिए सर्वश्रेष्ठ माध्यम चुनने को लेकर भ्रम में हैं। डिफ्लेशन से हमारे मायने उत्पादों और सेवाओं के दामों में लगातार गिरावट आने से हैं। यह मांग घटने, उत्पादन में कमी और अर्थव्यवस्था में कमजोरी से जुड़ी है।

जो निवेशक ज्यादा जोखिम लेने की क्षमता रखते हैं उन्हें उन सेक्टरों में निवेश पर गौर करना चाहिए जो मांग में गिरावट से ज्यादा प्रभावित नहीं हुए हैं। स्वास्थ्य सेवा जैसे सेक्टर और ऊर्जा जैसे आवश्यक सेगमेंट में मांग घटने की संभावना नहीं रहती। हालांकि कई कंपनियों पर अर्थव्यवस्था में कमजोरी का सीधा असर पड़ता है। इस वक्त कर्ज के जाल में न फंसने की सलाह दी जाती है। अपनी नौकरी बरकरार रखिए क्योंकि बाहर हालात कुछ अच्छे नहीं हैं।

क्या है वोलैटिलिटी यानी फियर इंडेक्स?

वोलैटिलिटी इंडेक्स को फियर इंडेक्स के नाम से भी जाना जाता है। शुरुआत करने वाले निवेशकों को यह जानकारी होनी चाहिए कि यह इंडेक्स बाजार की उथल - पुथल
का हाल बताता है। यह इस बात की जानकारी देता है कि अमुक इंडेक्स आने वाले 30 दिनों में कितनी उठापटक दर्ज कर सकता है। मिसाल के तौर पर वीआईएक्स , नेशनल स्टॉक एक्सचेंज ( एनएसई ) अगर 40 के स्तर पर है तो इससे यह संकेत मिलता है कि इक्विटी बाजार अगले एक महीने के दौरान 40 फीसदी तक उछाल या गिरावट दर्ज कर सकते हैं।

स्थिर बाजार में वीआईएक्स सामान्य तौर पर 10 से नीचे रहता है। अगर वीआईएक्स ऊंचे स्तर पर है तो इससे यह संकेत मिलता है कि निवेशकों में खौफ बढ़ गया है। बाजार में तेजी लौटने के पहले संकेत के तौर पर आप इस शानदार टूल का इस्तेमाल कर सकते हैं। अगर वोलैटिलिटी 20 से नीचे चली जाएगी तो आपका निवेश काफी हद तक सुरक्षित हो जाएगा।

कैश रिजर्व रेश्यो (सीआरआर) क्या है?

आजकल बैंक और कॉर्परट जगत रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (आरबीआई) से आग्रह कर रहे हैं कि वह सीआरआर की दर कम करे। यह मांग इसलिए की जा रही है, ताकि
ब्याज दरों में कमी आ सके और आम आदमी व कंपनियों को कर्ज कम दरों पर मिल सके। जाहिर है कि सीआरआर का सीधा संबंध ब्याज दरों से है। बैंकों का दो प्रमुख काम होता है। लेना और देना। वे लोगों से जमा पूंजी लेते हैं और उन्हें कर्ज देते हैं। लोगों से जो जमा पूंजी ली जाती है, उसका कुछ हिस्सा कर्ज देने में लगाया जाता है।

कुछ हिस्सा इनवेस्टमंट में इस्तेमाल किया जाता है और कुछ हिस्सा नकदी के रूप में आरबीआई के पास रखा जाता है। जो हिस्सा रिजर्व बैंक के पास रखा जाता है उसे ही सीआरआर कहा जाता है। जमा पूंजी का कितना हिस्सा आरबीआई के पास रखा जाए, यह वह स्वयं तय करता है। फिलहाल सीआरआर की दर 9 फीसदी है। अगर बैंकों के पास एक लाख रुपये की पूंजी जमा होती है तो बैंकों को करीब 9 हजार रुपये सीआरआर के रूप में आरबीआई के पास जमा कराना होगा। ऐसा करने के पीछे दो महत्वपूर्ण कारण हैं। पहला, सीआरआर में उतार-चढ़ाव के द्वारा कर्ज वितरण को बढ़ाया या घटाया जा सकता है। इससे बाजार में मनी फ्लो को नियंत्रित किया जा सकता है।

अर्थशास्त्र का प्रमुख सिद्धांत है कि बाजार में जितना धन मौजूद होगा, वस्तुओं की डिमांड उतनी ही बढ़ेगी। अगर आपको कोई मकान खरीदना है और बैंक आपको लोन देने के लिए तैयार हो जाए। बेशक आपकी हैसियत एक मुश्त पैसा देने की न हो, मगर ईएमआई दे सकते हैं तो आप मकान खरीदेंगे। इससे डिमांड बढ़ेगी तो कीमतें भी बढ़ जाएंगी। दूसरा कारण है, कुछ फीसदी नकदी इसलिए रखी जाती है, ताकि बैंकों को किसी कारोबार में घाटा होने या देश में किसी प्रकार के वित्तीय संकट में सीआरआर के रूप में रखी गई नकद राशि का उपयोग किया जा सके।

क्या है बैंक कैपिटल?

टीयर- 1 पूंजी ( Tier 1 Capital )


यह पूंजी बैंक की पूंजी पर्याप्तता को आंकने में इस्तेमाल होती है। यह एक तरह से बैंक की मूल पूंजी होती है, जिसमें शेयर पूंजी और घोषित रिजर्व शामिल होते हैं। शेयर पूंजी में वे इंस्ट्रूमेंट भी शामिल होते हैं जिन्हें धारक जब चाहे अपनी मर्जी से नहीं भुना सकता। यानी पब्लिक इश्यू के अलावा वे शेयर भी जो बाजार में कारोबार नहीं हो रहे और परिवर्तनीय एवं गैर परिवर्तनीय वॉरंट व बॉन्ड इसमें शामिल होते हैं। यह उस तरह की पूंजी है, जो बैंक को अपना कामकाज रोके बिना नुकसान को झेलने की क्षमता देती है।


टीयर-2 पूंजी ( Tier 2 Capital )

यह पूंजी का दूसरा दर्जा है। इसके तहत बैंक के अघोषित कैश रिजर्व, अनुमानित घाटे को पूरा करने के लिए तैयार रिजर्व और दूसरे दर्जे के सर्वाधिक कर्ज शामिल होते हैं। अगर कोई बैंक वित्तीय संकट में फंस जाए तो सबसे पहले उसे अपने पहले दर्जे के कर्ज उतारने होते हैं। इसके बाद ही उनके ऊपर दूसरे दर्जे के कर्ज उतारने की जवाबदेही होती है। यह उस तरह की पूंजी है जो बैंक कामकाज खत्म हो जाने की स्थिति में नुकसान को थामने में मदद करती है।

यानी जमाकर्ताओं के लिहाज से टीयर-2 पूंजी के मुकाबले टीयर-1 पूंजी ज्यादा सुरक्षा मुहैया करती है।

टीयर-3 पूंजी ( Tier 3 Capital )

यह वैसी पूंजी है जो बैंक अपने बाजार जोखिम को कुछ हद तक पूरा करने के लिए रखते हैं। इनके तहत टीयर-1 और टीयर-2 की तुलना में ज्यादा व्यापक तरह के कर्ज होते हैं। टीयर-3 पूंजी में ज्यादा संख्या में अघोषित रिजर्व, दूसरे दर्जे के कर्ज और अनुमानित नुकसान को पूरा करने वाले फंड होते हैं। इसका इस्तेमाल बैंकों के बाजार जोखिम, कमोडिटी जोखिम और विदेशी मुद्रा के जोखिम को कम करने के लिए किया जाता है। टीयर-3 पूंजी की मान्यता मिलने के लिए जरूरी है कि यह टीयर-1 पूंजी के 250 फीसदी से ज्यादा न हो, असुरक्षित हो, दूसरे दर्जे की हो और कम से कम 2 साल की परिपक्वता अवधि वाली हो।

पूंजी पर्याप्तता अनुपात ( Cash Adequacy Ratio - CAR )

यह बैंक की पूंजी को मापने का एक तरीका है। यह दरअसल बैंक की जोखिम वाली पूंजी की परसेंटेज बताता है। किसी बैंक की टीयर-1 और टीयर-2 पूंजी के जोड़ को जोखिम वाली उसकी कुल परिसंपत्तियों (रिस्क वेटेड असेट्स) से भाग देकर सीएआर निकाला जाता है। इसे सीआरएआर यानी कैपिटल टू रिस्क वेटेड असेट रेशियो भी कहा जाता है। इस अनुपात का इस्तेमाल जमाकर्ताओं के धन की सुरक्षा और वित्तीय तंत्र के स्थायित्व के लिए किया जाता है।

वैधानिक तरलता अनुपात ( Statutory Liquidity Ratio )

यह एक खास टर्म है जो केवल भारतीय बैंकिंग नियमन में इस्तेमाल किया जाता है। बैंकों के लिए नकद, सोना और सरकारी सिक्योरिटीज में निवेश के रूप में एक खास रकम रखना जरूरी होता है, जो वह किसी भी आपात देनदारी को पूरा करने में इस्तेमाल कर सकें। यह रकम आमतौर पर बैंक की अगले एक महीने की तमाम देनदारियों और किसी भी समय आने वाली आपात मांग के आधार पर तय की जाती है। इसकी अधिकतम सीमा 40 फीसदी और न्यूनतम 25 फीसदी है। आरबीआई ने फिलहाल इसकी सीमा 25 फीसदी पर निश्चित रखी है।

ये सर्किट क्या है?

सर्किट एक ऐसी व्यवस्था है जिसके तहत किसी भी सूचकांक (इंडेक्स) या शेयर में किसी एक कारोबारी सत्र में बेलगाम एकतरफा चाल को रोका जाता है। जैसे, अगर किसी शेयर में 5 फीसदी का सर्किट है और कल वह शेयर 100 रुपए पर बंद हुआ तो आज उसमें 95-105 रुपए के दायरे में ही कारोबार हो सकता है।

सर्किट कैसे तय होता है?

सर्किट तय करने के लिए किसी शेयर में कीमतों में उतार-चढ़ाव, औसत दैनिक कारोबार और शेयर की बुनियादी मजबूती के इतिहास को सहारा बनाया जाता है। सर्किट के चार स्तर होते हैं- 2, 5, 10, 20 फीसदी। अलग-अलग शेयरों के इतिहास के लिहाज से उनका अलग-अलग सर्किट तय किया जाता है।

कैसे काम करता है सर्किट?

सर्किट दो तरह के होते हैं- ऊपर का सर्किट (अपर सर्किट) और नीचे का सर्किट (लोअर सर्किट)। ऊपरी सर्किट लगने के बाद किसी शेयर में बिकवाली तो की जा सकती है, लेकिन खरीद नहीं। उसी तरह निचला सर्किट लगने पर उसमें खरीदारी तो की जा लेकिन उसे बेचा नहीं जा सकता।

क्या सभी शेयरों पर सर्किट लगता है?

वायदा कारोबार में शामिल शेयरों के अलावा दूसरे सभी शेयरों में सर्किट लगता है। वायदा कारोबार वाले शेयरों में एक ही दिन में कितनी भी बढ़त या कितनी भी गिरावट आ सकती है। इनमें कारोबार नहीं रुकता।

सेंसेक्स, निफ्टी में सर्किट लगने का क्या नियम है?

सूचकांकों में दोनों ही तरह के सर्किट ३ चरणों में लगते हैं। पहले चरण में 10, दूसरे चरण में 15 और तीसरे चरण में 20 फीसदी का सर्किट लगता है। एक बार जब किसी एक इंडेक्स (सेंसेक्स या निफ्टी) में सर्किट लग जाता है, तो दूसरे इंडेक्स में भी कारोबार अपने आप रोक दिया जाता है। सर्किट लगने पर एक साथ हाजिर और वायदा, दोनों बाजारों में एक साथ कारोबार बंद हो जाता है।

अगर बाजार में 1 बजे से पहले 10 फीसदी की गिरावट आती है, तो 1 घंटे के लिए कारोबार रुक जाता है। अगर यह गिरावट 1 बजे या उसके बाद लेकिन 2.30 बजे से पहले आती है, तो कारोबार आधे घंटे के लिए रोक दिया जाता है। और अगर 10 फीसदी की गिरावट 2.30 बजे या उसके बाद आती है तो कारोबार पर कोई रोक नहीं लगती यानी वह 3.30 बजे तक चलता रहता है।

अगर बाजार में 1 बजे से पहले 15 फीसदी की गिरावट आती है, तो 2 घंटे के लिए कारोबार रुक जाता है। अगर यह गिरावट 1 बजे या उसके बाद लेकिन 2 बजे से पहले आती है, तो कारोबार एक घंटे के लिए रोक दिया जाता है। और अगर 15 फीसदी की गिरावट 2 बजे या उसके बाद आती है तो कारोबार पूरे दिन के लिए बंद कर दिया जाता है।

बाजार 20 फीसदी गिरता है, तो उसके बाद बाकी दिन के लिए कारोबार बंद कर दिया जाता है।

Wednesday, May 13, 2009

Some Do’s and Don’ts to tackle the turbulent times

The current crisis is perhaps the worst that any investor could face in his life time. No wonder, these turbulent times have played havoc in the minds of investors including the most experienced and the seasoned ones. Needless to say, small investors are the worst hit by this downturn both in terms of capital loss as well as loss of confidence in their investment strategy. In times like these, investors often feel compelled to take some irrational decisions that can have a devastating effect on their prospects to achieve long-term investment goals.

It is, therefore, necessary for investors to demonstrate patience and perseverance to tackle these difficult times. Let us discuss a few do’s and don’ts that can go a long way in tackling these extraordinary times.

Do continue with your SIPs

One of the major disturbing trends that have emerged in the recent times is rethinking by many investors on their investments being made through Systematic Investment Plans (SIPs) in equity funds. While some have discontinued their SIPs mid way, others have decided not to renew the SIP for a further time period.

While it is true that even SIP investors have also suffered losses in the current downturn, the impact on their portfolios is much less compared to those who invested a lump sum amount at the peak levels. The point to remember is that their fresh investments at the current levels through SIP will go a long way in accelerating the recovery process going forward. The “Rupee Cost Averaging” will work the best for them as the current NAVs are at considerable lower levels as compared to say a year ago.

Remember, a disciplined approach takes away the speculative element from the investment strategy and ensures success. Therefore, if you are thinking of discontinuing your SIP, you need to rethink. By bringing your average cost down in a disciplined manner, you could be amongst the first ones to benefit from the market recovery, as and when it happens.

Don’t switch existing equity investments into conservative options in a panic
We make our worst investment mistakes in panic situations. The current scenario is not different. Many investors are moving their equity investments into conservative options like fixed deposits or debt and debt oriented funds. The fall in the equity portfolio value along with continuous negative news flows and the resultant uncertainties are adding to the anxiety for many more investors. While the move to switch investments into more conservative options may seem like a sensible thing to do, the fact remains that selling in a down market can be a costly mistake. Though investing fresh money in conservative options to remove the imbalance in the portfolio is all right, a haphazard approach for existing investments in equities can expose you to the risk of falling short of long term financial goals.

Don’t equate negative returns with poor performance

Negative returns from equity funds are commonly perceived as poor performance. In a current market like situation where the stock market has witnessed a steep fall over the last one year or so, even the best of fund mangers have given negative returns. The key is to compare the performance of your funds with their peer groups and then analyse their performance. If your funds have fallen less than their peer group and the fund managers have stuck to their investment philosophies, it makes sense to continue with them.
History shows that quality funds yield above average returns over time. The years of spectacular growth will help even out your portfolio returns during bear markets. Therefore, it is vital that you don’t allow your expectations to be distorted by extraordinary returns during the bull runs as well as by the dismal returns during the bear markets.

Don’t hesitate to realign your portfolio

Many of us have the tendency to chase performance in a rising market and hence end up investing a significant portion of our investments in those equity funds that are flavour of the month. The result in most cases is over-exposure to certain sectors and segments of the market like mid-cap and small cap thereby exposing us to much higher levels of risk than our risk taking capacity. Considering the current economic scenario, some of the sectors as well as segments of the stock market are likely to struggle over the next couple of years. Therefore, it makes sense to realign the portfolio in favour of diversified funds that have bias towards the large cap stocks.

However, many investors simply refuse to make changes, irrespective of the unfavourable mix of funds in the portfolio as they simply hate the idea of booking losses. More often than not, they take it as a personal defeat and refuse to exit from a fund unless the NAV reaches the level at which they got into the fund. They fail to realize that a non-performing fund will take much longer to recover the losses, if at all.

On the other hand, by moving money to a fund that is likely to do better in future, not only can they recover the losses much faster but also benefit from the healthy growth in the long run. Though equity investments are essentially long term investments, it is equally necessary to make changes in the portfolio from time to time to get the best results.
-Hemant Rustagi

Tuesday, May 12, 2009

क्यूआईपी क्या है?

क्यूआईपी के तहत कोई भी सूचीबद्ध कंपनी अपने शेयर, पूर्ण या आंशिक कंवर्टिबल डिबेंचर्स या फिर वारंट से इतर प्रतिभूति जारी करती है। इन्हें बाद में शेयरों में तब्दील किया जा सकता है, लेकिन क्यूआईपी केवल योग्य संस्थागत खरीदार यानी क्वॉलिफाइड इंस्टीट्यूशनल बायर (क्यूआईबी) के लिए ही होता है। क्यूआईपी कुछ खास लोगों या समूह को शेयर देने का एक जरिया होता है। हालांकि यह तरजीही शेयर देने के तरीके से अलग है। शेयर जारी करने की दूसरी विधियों के मुकाबले क्यूआईपी आसान होता है। इसमें बहुत अधिक औपचारिकताएं नहीं होतीं। इसे जारी करने के पहले सेबी को सूचना नहीं देनी पड़ती।

इसकी शुरुआत क्यों हुई?

साल 2006 में बाजार नियामक सेबी ने क्यूआईपी पेश किया था। इसके पहले सूचीबद्ध भारतीय कंपनियां विदेशी पूंजी पर बहुत अधिक निर्भर थीं। असल में भारतीय कंपनियों को घरेलू बाजार से पूंजी जुटाने में कई दिक्कतें होती थीं। वे पैसा जुटाने के लिए विदेशी मुद्रा परिवर्तनीय बॉन्ड (एफसीसीबी) और ग्लोबल डिपॉजिटरी रिसीट्स (जीडीआर) पर निर्भर थे। इस निर्भरता को कम करने या फिर रोकने के लिए सेबी ने क्यूआईपी की पेशकश की।

क्यूआईपी से संबंधित नियम-कानून कौन-कौन से हैं?

क्यूआईपी जारी करने के लिए कंपनी को कुछ कसौटियों पर खरा उतरना होता है। कंपनी का सूचीबद्ध होना इसकी पहली जरूरत है। दूसरा, कंपनी के शेयर आम निवेशकों के पास होने चाहिए। इसकी मात्रा सूचीबद्ध होने के दौरान होने वाले समझौते में तय किया जाता है। साथ ही कंपनी को क्यूआईपी लाने के दौरान कम से कम 10 फीसदी प्रतिभूतियां म्यूचुअल फंड योजनाओं के तहत जारी करना पड़ता है। यदि इश्यू का आकार 250 करोड़ रुपए तक है तो खरीदारों को संख्या कम से कम दो होनी चाहिए। यदि इश्यू का आकार 250 करोड़ रुपए से ज्यादा का है तो खरीदारों की संख्या 5 होनी चाहिए। कोई भी एक खरीदार इश्यू के मूल्य के 50 फीसदी से ज्यादा की खरीदारी नहीं कर सकता। साथ ही ऐसे किसी क्यूआईबी को इश्यू आवंटित नहीं किया जा सकता जो कंपनी के किसी भी प्रमोटर से संबंधित हो।

पिछले दिनों क्यूआईपी चर्चा में क्यों रहा?

रियल एस्टेट कंपनी यूनिटेक ने पिछले दिनों क्यूआईपी जारी किया था। यूनिटेक को पैसे की जरूरत थी। कंपनी ने क्यूआईपी के जरिए 1,620 करोड़ रुपए जुटाए। कंपनी में प्रमोटरों की हिस्सेदारी घटकर 51 फीसदी हो चली है। पिछले दिनों यह भी चर्चा थी कि एलआईसी हाउसिंग फाइनेंस भी क्यूआईपी जारी करने पर विचार कर रही है।

क्या होता है सिक्योरिटाइजेशन?

यह एक प्रक्रिया है जिसके तहत कई तरह के फाइनेंशियल असेट (शेयर, मॉर्टगेज वगैरह) को एक साथ मिलाकर एक नए तरह का इस्ट्रूमेंट बनाया जाता है। इसकी पैकिंग की जाती है और फिर बेचा जाता है। मॉर्टगेज आधारित सिक्योरिटी इस प्रक्रिया का बेहतरीन उदाहरण है।

कई तरह के मॉर्टगेज (गिरवी रखे गए असेट) को एक साथ रखकर उसे कई छोटे-छोटे टुकड़ों में बांट दिया जाता है। छोटे टुकड़ों में बांटने के लिए उनमें निहित डिफॉल्ट के खतरे को आधार बनाया जाता है। इसके बाद इन्हें निवेशकों को बेच दिया जाता है। मॉर्टगेज के हर छोटे पैकेट के बदले जारी करने वाला खरीदार को एक निश्चित ब्याज देता है। इस तरह ये छोटे पैकेट बॉन्ड की तरह काम करते हैं।

क्या है कासा अनुपात?

क्या है कासा अनुपात?

कासा (सीएएसए) का मतलब है करेंट और सेविंग्स एकाउंट। चालू (करेंट) खाता, बचत खाता और टर्म डिपॉजिट जैसे अलग-अलग तरह के डिपॉजिट बैंकों के लिए फंड के बड़े स्त्रोत की भूमिका अदा करते हैं। कासा रेशियो या अनुपात इस बात की जानकारी देता है कि बैंक के कुल डिपॉजिट में चालू और बचत खाते के रूप में कितना डिपॉजिट है।

बैंक के लिए क्यों है महत्वपूर्ण?

कासा अनुपात ज्यादा होने का यह मतलब होगा कि बैंक में जमा राशि का बड़ा अंश चालू और बचत खातों की रकम से आया है जो आम तौर पर फंड के सस्ते स्त्रोत होते हैं। कई बैंक करेंट एकाउंट में जमा पर ब्याज की अदायगी नहीं करते जबकि बचत खाते में पड़ी रकम पर केवल 3-3.5 फीसदी ब्याज दर लगती है। इसलिए, कासा अनुपात जितना बेहतर होगा, शुद्ध ब्याज मार्जिन उतना ज्यादा होगा जिसका अर्थ यह हुआ कि बैंक की ऑपरेटिंग कार्यक्षमता बेहतर होगी। शुद्ध ब्याज मार्जिन कुल ब्याज आय और खर्च का अंतर होता है और इसे औसत अर्निंग एसेट के प्रतिशत के तौर पर पेश किया जाता है। कासा से ज्यादा आमदनी शुद्ध ब्याज मार्जिन में सुधार करती है, क्योंकि इस फंड का खर्च तुलनात्मक रूप से कम हो जाता है। मसलन, ज्यादातर बैंक 10 फीसदी से ज्यादा ब्याज दर पर कर्ज देते हैं जबकि बचत खाते पर वे केवल 3.5 फीसदी की ब्याज दर लगाते हैं। हालांकि, वास्तविक रियलाइजेशन खर्च पर भी निर्भर करता है।

खबरों में क्यों है कासा अनुपात?

अर्थव्यवस्था में मंदी के बावजूद ज्यादातर बैंकों का कासा अनुपात मार्च में खत्म तिमाही में या तो मजबूत बढ़त दर हासिल करने में कामयाब रहा है या फिर इसमें स्थिरता देखी गई है। उदाहरण के लिए, आईसीआईसीआई बैंक के मामले में कासा अनुपात मार्च तिमाही में सुधार के साथ 28.7 फीसदी रहा जबकि पिछले साल की इसी अवधि में यह 26.1 फीसदी था। इसके अलावा एक्सिस बैंक का कासा अनुपात भी 38.1 फीसदी से बढ़कर 43.1 फीसदी पर पहुंच गया है। इसका श्रेय पिछली तिमाही में चालू और बचत खातों में जोरदार बढ़त को दिया जा रहा है। इसके अलावा इलाहाबाद बैंक और बैंक ऑफ बड़ौदा का कासा रेशियो स्थिर रहा है।

टर्म और डिमांड डिपॉजिट से कैसे अलग है कासा?

करेंट और सेविंग एकाउंट ऑपरेशनल बने रहते हैं। जमाकर्ताओं को पैसा निकालने के लिए पूर्व सूचना देने की जरूरत नहीं होती जबकि टर्म डिपॉजिट के मामले में रकम खास अवधि के लिए लॉक-इन हो जाती है। अगर जमाकर्ता सावधि जमा योजाना की परिपक्वता अवधि से पहले रकम निकालना चाहता है तो उसे जुर्माना भरना पड़ता है। आम तौर पर चालू खाते के साथ ओवरड्राफ्ट सुविधा दी जाती है। डिमांड डिपॉजिट आपको कभी भी पैसा निकालने की सुविधा देता है।
-आनंद रवानी

Monday, May 11, 2009

ये वैल्यू एवरेजिंग क्या है?

ये वैल्यू एवरेजिंग क्या है?
वैल्यू एवरेजिंग, निवेश की एक ऐसी रणनीति हैं जो हर महीने नियमित रूप से डाली जाने वाली रकम के रूप में रुपया कॉस्ट एवरेजिंग का काम करती है। वैल्यू एवरेजिंग में निवेशक हर महीने अपने पोर्टफोलियो के लिए बढ़त दर या रकम का लक्ष्य तय करता है। इसके बाद वास्तविक संपत्ति आधार पर तुलनात्मक फायदे या नुकसान के मुताबिक अगले महीने के योगदान को एडजस्ट किया जाता है।

वैल्यू एवरेजिंग का मुख्य लक्ष्य कीमतें गिरने पर ज्यादा शेयर खरीदना और कीमतें चढ़ने पर कम शेयर बटोरना है। ठीक ऐसा ही रुपया कॉस्ट एवरेजिंग में होता है। इस प्रक्रिया के तहत आप शेयरों की खरीदारी के वक्त आए खर्च को कम से कम स्तर पर लाने के लिए आगे उस वक्त शेयर खरीदते हैं, जब उनके दाम निचले स्तर पर हों। कई वर्षों की समयावधि में वैल्यू एवरेजिंग बढि़या रिटर्न जुटाने में मदद देती है।

नुकसान का जायजा
वैल्यू एवरेजिंग के साथ जो सबसे बड़ा संभावित नुकसान है, वह यह है कि जैसे-जैसे निवेशक का एसेट बेस यानी संपत्ति आधार बढ़ता है, तो लक्ष्य से दूरी को पाटने की क्षमता बनाए रखने में काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। ऐसी सूरत में एक विकल्प संपत्ति का एक अंश फिक्स्ड इनकम फंड में लगाने से जुड़ा है। इस विकल्प के तहत आप रिटर्न के हर महीने से जुड़े लक्ष्य तक पहुंचने के लिए इक्विटी होल्डिंग में पैसा डाल और निकाल सकते हैं। इस माध्यम से नई फंडिंग के तौर पर नकदी के आवंटन के बजाय इसे फिक्स्ड इनकम के अंश के तौर पर जुटाया जा सकता है और जरूरत के मुताबिक इक्विटी होल्डिंग में ज्यादा रकम में आवंटित भी किया जा सकता है।

बाजार का सबसे ऊपरी और सबसे निचले स्तर का अंदाजा लगाना लगभग नामुमकिन है। हालांकि, रकम के मामले में अलग-अलग स्तर अपनाने से निवेशकों को मदद मिल सकती है।

रुपया कॉस्ट एवरेजिंग
ज्यादातर निवेशक रुपया कॉस्ट एवरेजिंग या म्यूचुअल फंड के सिस्टेमेटिक इनवेस्टमेंट प्लान (एसआईपी) की अवधारणा से वाकिफ होते हैं। इसके तहत आप नियमित अंतराल पर एक निश्चित रकम निवेश करते हैं। निवेश के गलियारों में वैल्यू एवरेजिंग ज्यादा परिपक्व धारणा मानी जाती है। यहां, निवेशक से इस बात की उम्मीद की जाती है कि वह फंड की तय की गई वैल्यू तक पहुंचने के लिए बाजार की दिशा (मार्केट चढ़ने या उतरने) के मुताबिक, रकम को एडजस्ट करने का काम करेगा।

निवेशकों को बाजार के निचले स्तरों पर होने के वक्त शेयरों में ज्यादा पैसा डालना चाहिए जबकि हालात उठापटक वाले हों तो सुरक्षित वित्तीय उत्पादों में निवेश करना चाहिए। यह भी दिमाग में रखना चाहिए कि जब इक्विटी बाजारों में गिरावट देखने को मिलेगी तो भी यही पैसा निवेशकों के इस्तेमाल में आएगा। साथ ही इस बात पर भी गौर कीजिए कि जब बाजार में मंदी का दौर जारी हो तो आपके हाथ में पर्याप्त नकदी का इंतजाम हो।

उठापटक के वक्त क्या करें
निवेशकों को बाजार के निचले स्तरों पर होने के वक्त शेयरों में ज्यादा पैसा डालना चाहिए जबकि हालात उठापटक वाले हों तो सुरक्षित वित्तीय उत्पादों में निवेश करना चाहिए। यह भी दिमाग में रखना चाहिए कि जब इक्विटी बाजारों में गिरावट देखने को मिलेगी तो भी यही पैसा निवेशकों के इस्तेमाल में आएगा।

साथ ही इस बात पर भी गौर कीजिए कि जब बाजार में मंदी का दौर जारी हो तो आपके हाथ में पर्याप्त नकदी का इंतजाम हो।

गिरावट देखने को मिले तो...
बाजार में जब गिरावट का सिलसिला देखने को मिले, तो निवेश के खाते में शेयरों की तादाद बढ़ाने का सही मौका माना जाता है। ऐसा कर आप कीमतों के निचले स्तरों पर होने के वक्त ज्यादा से ज्यादा शेयर खरीद सकते हैं जो कल बाजार में तेजी के वक्त आपको बेहतरीन मुनाफा देने का काम करेंगे। जब बाजार आपको ज्यादा रिटर्न दे चुका होगा तो इक्विटी में अंशदान घटाने में समझदारी कही जा सकती है और आप ऊंची कीमतों पर कम शेयर खरीदकर अपने पहले से पुख्ता पोर्टफोलियो में चार चांद लगा सकते हैं। मसलन, फर्ज कीजिए कि आपका एकाउंट 1,000 रुपए की वैल्यू रखता है और पोर्टफोलियो के लिए वित्तीय लक्ष्य हर महीने 100 रुपए का इजाफा रखा गया है। अगर महीने के दौरान एसेट बढ़कर 1,010 रुपए तक पहुंच जाती है तो निवेशक को 90 रुपए की एसेट का फंडिंग का जुगाड़ करना होगा। अगले महीने लक्ष्य बढ़कर 1,200 रुपए की एकाउंट होल्डिंग का हो जाएगा। अगर तीसरे महीने की वैल्यू 1,310 रुपए है तो कुछ भी निवेश नहीं करना होगा। यही चलन आने वाले दूसरे महीनों में भी जारी रहेगा। इस उदाहरण में निवेशक को बाजार के बढ़ने की वजह से बच गए 100 रुपए सुरक्षित निवेश उत्पाद में निवेश करने चाहिए या फिर बैंक के बचत खाते में रखने चाहिए ताकि उसे खर्च करने के बजाय उस पर ब्याज कमाया जा सके। शेयर बाजारों में स्टॉक के दाम गिरने पर आप ज्यादा खरीदते हैं और चढ़ने पर खरीदारी का अभियान सुस्त हो जाता है। दूसरे शब्दों में दाम गिरने पर आप ज्यादा से ज्यादा शेयर खरीदने की स्थिति में होते हैं क्योंकि जेब से निकलने वाली रकम आपके लिए अधिकाधिक शेयर जुटाती है जबकि बाजार के आसमान पर पहुंचने के बाद कम निवेश किया जाता है।

रिटायरमेंट के बाबत रणनीति

वैल्यू एवरेजिंग के साथ आप सबसे पहले यह पता लगाते हैं कि आपको रिटायरमेंट जैसे लक्ष्य के लिए कितनी रकम की जरूरत होगी। इसके बाद निवेश पर मिलने वाले संभावित सालाना रिटर्न के आधार पर इस सवाल के जवाब तक पहुंचते हैं कि उस वित्तीय लक्ष्य को पाने के लिए आपको हर महीने कितना पैसा लगाना होगा। आपको हर महीने यह प्रक्रिया आजमानी चाहिए। जिन महीनों में आप लक्ष्य से कुछ पीछे रह जाएं, उस वक्त उस रकम में जेब से पैसा डालेंगे जो आपको हर माह निवेश करना है। और जिन महीनों में आपको मिलने वाला रिटर्न उम्मीदों से बेहतर रहा है और आपका पोर्टफोलियो लक्ष्य से भी बेहतर रफ्तार से बढ़ रहा है तो आप मासिक निवेश का स्तर नीचे ले आते हैं या संभवत: कुछ शेयर बेचने का कदम उठाते हैं।

इस रणनीति को अमली जामा पहनाने के कई रास्ते हैं। हर महीने निवेश से जुड़ी रकम को एडजस्ट करने के बजाय आप हर छह महीने या हर साल उसे दोबारा आंक सकते हैं। रुपए के आधार पर विशिष्ट लक्ष्य तक पहुंचने के लिए यह ज्यादा बेहतर चरणबद्ध तरीका मुहैया कराता है। क्योंकि आप अपने पोर्टफोलियो की वैल्यू पर निगाह रखते हैं, इसलिए इस बात की जानकारी मिलती रहती है कि क्या आप सही राह पर बढ़ रहे हैं या नहीं और वास्तव में आपको पटरी पर लौटने के लिए क्या करने की जरूरत है।

अगर बाजार लंबी मंदी के चंगुल में फंस जाता है या आपने रिटर्न आने का जरूरत से ज्यादा अंदाजा लगा दिया था तो अपने एकाउंट को सही रास्ते पर बनाए रखने के लिए आपको अपनी जेब से उसमें काफी पैसा डालने की जरूरत पड़ सकती है। इसके अलावा, कमाए जाने वाले रिटर्न पर यह आपको वास्तविक नियंत्रण नहीं देता जो बाजारों की ओर से तय किया जाता है। लेकिन इस रणनीति से आप अपने पोर्टफोलियो के सामने खड़ी उठापटक को एक हद तक कम कर सकते हैं।

एचएनआई कौन होते हैं?

जिन व्यक्तियों या परिवारों के पास 10,00000 डॉलर से ज़्यादा की निवेश लायक रकम होती है वे बड़े निवेशक कहलाते यानी एचएनाई कहलाते हैं। बड़े निवेशकों की निवेश योग्य दस लाख डॉलर की रकम में उस रियल एस्टेट प्रॉपर्टी को शामिल नहीं किया जाता, जिनमें वे रहते हैं। इसके अलावा, अन्य उपभोग की दूसरी वस्तुएं इसमें शामिल नहीं होती।

पिछले साल सितंबर में प्रकाशित मेरिल लिंच केप जेमिनी एशिया पैसिफिक रिपोर्ट फॉर 2008 के मुताबिक, 2007 के अंत में भारत में 1.23 लाख और समूचे एशिया प्रशांत क्षेत्र में 28 लाख बड़े निवेशक थे। 2007 के अंत में इन बड़े निवेशकों की कुल निवेश योग्य संपत्ति 9.5 लाख करोड़ डॉलर थी।

Thursday, May 7, 2009

मंदी के मारे शेयर ही सबसे ज्यादा उछाल पर

मंदी के मारे शेयर ही सबसे ज्यादा उछाल पर
मुंबई - शेयर बाजार में मार्च 2009 से तेजी बनी हुई है। इससे पहले साल भर तक बाजार मंदी की चपेट में था। बाजार की मौजूदा तेजी का फायदा लार्ज कैप, मिडकैप और स्मॉलकैप सभी स्टॉक्स को हुआ है। सबसे ज्यादा उछाल उन शेयरों में आया है, जिन पर मंदी की सबसे ज्यादा मार पड़ी थी। मिसाल के तौर पर मंदी के दौर में बैंकिंग और रियल एस्टेट सेक्टर की कंपनियों के शेयरों की कीमत में भारी गिरावट आई थी लेकिन अब इन सेक्टरों को तेजी का फायदा मिल रहा है।

जानकारों का कहना है कि दुनिया भर में के शेयर बाजारों में तेजी के शुरुआती संकेतों का असर भारतीय बाजार पर भी पड़ा इस तेजी का दिलचस्प पहलू यह भी है कि कुछ महीने पहले तक ज्यादातर निवेशकों का इसका यकीन नहीं था। ऐसे में इन लोगों ने नकदी को अपने पास रखना ही बेहतर समझा। अब यही निवेशक मौजूदा तेजी का फायदा उठाने की फिराक में हैं और निवेश के लिए वैल्यू शेयरों की तलाश कर रहे हैं। कुछ महीने पहले तक निवेशक बाजार की हलचल पर नजर डालना भी गवारा नहीं कर रहे थे, लेकिन अब वे इस पर पैनी नजर रख रहे हैं। इस बीच वैश्विक बाजारों पर नकारात्मक खबरों का भी बहुत ज्यादा असर नहीं पड़ा। इन खबरों के आने के बाद दुनिया के बाजारों में मामूली गिरावट आई, लेकिन उसके बाद फिर से तेजी का दौर शुरू हो गया।

जानकारों का कहना है कि बहुत से बड़े फंड हाउस भी मौजूदा तेजी का फायदा नहीं उठा पाए हैं, वहीं कई छोटे निवेशक इस बार भी मुनाफा बटोरने से चूक गए। ये लोग हर गिरावट के बाद खरीदारी कर रहे हैं, इससे निचले स्तरों पर बाजार को समर्थन मिल रहा है। हालांकि, मौजूदा स्तरों पर छोटे निवेशकों को सावधानी बरतने की सलाह दी जाती है। अक्सर वे उन शेयरों में पैसा लगाते हैं, जो पहले ही काफी ऊपर चढ़ चुके होते हैं। इस तरह से छोटे निवेशक कई बार फंस जाते हैं। ऐसे में संयम बरतना बेहतर होगा। छोटे निवेशकों को मजबूत फंडामेंटल वाले कुछ शेयरों को चुनना चाहिए, उसके बाद उन पर लगातार नजर बनाए रखनी चाहिए। जब भी बाजार में गिरावट आती है, तब निवेशक उन शेयरों को खरीद सकते हैं।

अगर छोटे निवेशक इस रणनीति पर चलें तो वे इस तेजी का फायदा उठा सकते हैं। यहां हम आपको बता रहे हैं कि मजबूत फंडामेंटल वाले शेयरों की पहचान कैसे की जा सकती है..

रेशियो
शेयर महंगे हैं या सस्ते, इसकी पहचान के लिए रेशियो का इस्तेमाल किया जाता है। बाजार में सबसे ज्यादा प्राइस टू अर्निंग (पी/ई) और प्राइस टू बुक वैल्यू (पी/बीवी) रेशियो की चर्चा होती है। ये रेशियो जितने कम होते हैं, शेयर को उतना ही सस्ता माना जाता है। किसी शेयर के इन रेशियो की तुलना उसी सेक्टर की दूसरी कंपनी से की जा सकती है। इससे आपको यह पता चल सकता है कि कौन सा शेयर सस्ता है और कौन सा महंगा। हालांकि, सिर्फ रेशियो के आधार पर ही वैल्यूएशन को नहीं मापा जा सकता। इसके साथ आपको कंपनी का पिछला ट्रैक रिकॉर्ड, मैनेजमेंट की सोच और कंपनी के साइज (लार्जकैप, मिडकैप या स्मॉलकैप) का ख्याल भी रखना पड़ता है। कंपनी का पिछला ट्रैक रिकॉर्ड देखते वक्त आमदनी और मुनाफे पर खास नजर डालनी चाहिए।

कारोबार को लेकर आगे का नजरिया
आपके निवेश का नतीजा बहुत हद तक इस पर भी निर्भर करता है, जिस सेक्टर की कंपनी के शेयर आप खरीदने जा रहे हैं, वह आगे कैसा कारोबारी प्रदर्शन करेगा। कंपनी के अगले साल के कारोबारी लक्ष्य को समझने के लिए आप उसके सालाना नतीजे को देख सकते हैं। कई बार कंपनियां एनुअल रिपोर्ट में आगे के कारोबारी माहौल की तस्वीर खींचती हैं। बाजार के जानकार भी कई सेक्टरों के भविष्य की कारोबारी रूपरेखा रिपोर्ट के जरिए सार्वजनिक करते हैं। इस तरह से आप उन शेयरों को तलाश सकते हैं, जिनका आने वाला कल शानदार है। पिटे हुए शेयरपिछले साल मंदी के दौर में कई सेक्टर और कंपनियों पर जबरदस्त मार पड़ी। मौजूदा तेजी के दौरान इनमें से कइयों की वापसी हुई है। इस तरह के कई दूसरे शेयर अब भी अपनी किस्मत संवरने का इंतजार कर रहे हैं। ऐसे जिन शेयरों पर अभी तक बाजार की नजर नहीं पड़ी है, निवेशक उनके फंडामेंटल की पड़ताल के बाद उसमें पैसा लगा सकते हैं। छोटे निवेशकों को स्मॉलकैप या पेनी स्टॉक से बचना चाहिए।
-विकास अग्रवाल

क्या होता है राइट्स इश्यू?

राइट्स इश्यू (Rights issue)
कंपनियों द्वारा रकम जुटाने के लिए जारी किए जाने वाले वे शेयर जो मौजूदा शेयरधारकों को दिए जाते हैं। आम तौर पर ये शेयर भारी डिस्काउंट (मौजूदा भाव से कम) पर दिए जाते हैं और शेयरधारकों के पास मौजूद शेयरों के अनुपात में होते हैं। जैसे, अगर कोई कंपनी 2:5 में राइट्स इश्यू देने की घोषणा करती है, तो आपको उस कंपनी के हर 5 शेयर पर 2 शेयर खरीदने का अधिकार होगा। राइट्स इश्यू में जारी शेयर सूचीबद्ध होने के बाद आम शेयरों की तरह ही खरीदे-बेचे जा सकते हैं।



शेयर विभाजन (Stock split)

इस प्रक्रिया के तहत एक शेयर को कई शेयरों में विभाजित कर दिया जाता है, जिससे शेयरों का बाजार भाव विभाजन के अनुपात में कम हो जाता है। साथ ही उसका फेस वैल्यू भी उसी अनुपात में कम हो जाता है। जैसे 10 रुपए फेस वैल्यू वाले शेयर की कंपनी अगर 5:1 में शेयर विभाजन की घोषणा करती है और उसका बाजार भाव 2,000 रुपए चल रहा हो, तो एक्स स्प्लिट होने के बाद उसके शेयर का भाव लगभग 400 रुपए पर आ जाएगा और उसका फेस वैल्यू घटकर 2 रुपए हो जाएगा। आम तौर पर कंपनियां अपने शेयरों का कारोबार बढ़ाने के लिए ही शेयर विभाजन का सहारा लेती हैं।

शेयरों की पुनर्खरीद (Buy back offer )

प्रमोटर कंपनी में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाने के लिए 2 तरीके अपनाते हैं। या तो वे खुले बाजार से धीरे-धीरे कर अपनी कंपनी के शेयर खरीदते हैं या फिर मौजूदा शेयरधारकों को एक खास भाव पर अपने शेयर प्रमोटर को बेचने को कहते हैं। दूसरी प्रक्रिया को पुनर्खरीद यानी बाय बैक कहा जाता है। बाय बैक में प्रमोटर एक खास तारीख तक शेयरधारकों को अपने शेयर बेचने का प्रस्ताव करता है। इससे कंपनी में एक ओर तो प्रमोटर की हिस्सेदारी बढ़ती है और दूसरी ओर आम जनता की हिस्सेदारी घटती है। इससे शेयर के भाव पर सकारात्मक दबाव पड़ता है। आम तौर पर बाय बैक को कंपनी के लिए काफी अच्छा माना जाता है क्योंकि इससे पता चलता है कि उसके प्रमोटरों को अपनी योजनाओं और कंपनी के भविष्य पर पूरा भरोसा है।

ओपन ऑफर (Open offer)

यह राइट्स इश्यू की ही तरह किसी कंपनी के लिए रकम जुटाने का एक जरिया है, जिसमें कंपनी अपने शेयरधारकों को मौजूदा बाजार भाव से कम पर शेयरों की खरीद के लिए प्रस्ताव करती है। राइट्स इश्यू से यह इस मायने में अलग होता है कि शेयरधारक राइट्स में मिले शेयरों को तुरंत बाजार में बेच सकते हैं, लेकिन ओपन ऑफर में मिले शेयरों को तुरंत नहीं बेचा जा सकता।

वर्ष की शुरुआत में टैक्स प्लानिंग बेहतर


वर्ष की शुरुआत में टैक्स प्लानिंग बेहतर
वित्त वर्ष 2008-09 समाप्त हो चुका है और नया वित्त वर्ष आ गया है। वेतनभोगी कर्मचारियों को 2009-10 के वित्त वर्ष के लिए इनवेस्टमेंट डिक्लरेशन का फॉर्म मिल गया होगा। प्रत्येक वर्ष की तरह इस बार भी बहुत से लोग कर की कोई योजना बनाए बगैर इसे भरेंगे और कर बचत के लिए वित्त वर्ष के आखिरी महीने में ही दौड़-भाग करेंगे। स्व रोजगार में लगे लोग अभी इस वर्ष के लिए कर योजना के बारे में बात करना शायद पसंद न करें क्योंकि वे अभी भी पिछले वर्ष की कर देनदारी की गणना करने में व्यस्त होंगे।

पर, क्या आप भी इन्हीं लोगों में से हैं? यदि हां, तो ये आर्टिकल आप ही के लिए लिखा गया है..आगे बढ़ें...

क्यों जरूरी समय से प्लानिंग
अगर आप वर्ष की शुरुआत में कर योजना नहीं बनाते तो वर्ष के अंत में आपको मुश्किल का सामना करना पड़ सकता है। आमतौर पर वर्ष का अंत नजदीक आने पर लोग कर बचाने के लिए जल्दबाजी में निवेश करते हैं और गलत प्रोडक्ट में निवेश कर बैठते हैं। इस गलती से बचने के लिए अभी से कर योजना बनाना ठीक रहेगा। राइट रिर्टन्स फाइनेंशियल प्लानिंग के देवांग शाह का कहना है, 'एक हजार किलोमीटर की यात्रा पहले कदम के साथ समाप्त नहीं होती लेकिन वह पहला कदम इस लंबी यात्रा को समाप्त करने के लिए जरूरी होता है। इसी तरह हमें संपत्ति बनाने और वित्तीय लक्ष्यों को हासिल करने के लिए वित्तीय योजना की शुरुआत जल्द करनी चाहिए।'

कैसे, आइए हम आपको बताएं। आगे की प्लेट पढ़िए...

कैसे बनाएं कर योजना

इसकी शुरुआत उस रकम की गणना से होती है जिसका भुगतान आप पहले से कर बचाने वाले इंस्ट्रूमेंट में निवेश के तौर पर कर रहे हैं। मान लीजिए आप ऐसे इंस्ट्रूमेंट्स में प्रतिवर्ष 60,000 रुपए का भुगतान कर रहे हैं तो आपको एक लाख रुपए की कर कटौती का लाभ उठाने के लिए 40,000 रुपए का और निवेश करना होगा।

एकॉर्न इनवेस्टमेंट्स के सर्टिफाइड फाइनेंशियल प्लानर गोविंद पाठक का कहना है कि अगर कोई व्यक्ति बीमा पॉलिसी के प्रीमियम और प्रॉविडेंट फंड जैसे विकल्पों में निवेश से एक लाख रुपए की सीमा पार कर चुके हैं तो आपको कर बचाने वाले इंस्ट्रूमेंट में और निवेश करने की जरूरत नहीं है। आप अपने वित्तीय लक्ष्यों के अनुसार निवेश कर सकते हैं। लेकिन अगर कर बचाने की सीमा पूरी नहीं हुई है तो आपको यह फैसला करना होगा कि इक्विटी और डेट में आप कितना धन लगाएंगे। संपत्ति के वर्गों में निवेश का आवंटन आपकी जोखिम उठाने की क्षमता पर भी निर्भर करता है। आमतौर पर बुजुर्गों की तुलना में युवा लोग निवेश में जोखिम लेना ज्यादा पसंद करते हैं। इसी वजह से इक्विटी में आवंटन भी उम्र के अनुसार बदलता रहता है। पाठक का कहना है, '30-40 वर्ष के वर्ग में आने वाले लोगों को अपने पोर्टफोलियो का कम से कम 40 फीसदी इक्विटी में लगाना चाहिए। रिटायर हो चुके लोग इक्विटी में लगभग 20-25 फीसदी निवेश कर सकते हैं। इक्विटी में निवेश पर तभी विचार करना चाहिए जब निवेश की अवधि कम से कम तीन वर्ष की हो।'

इक्विटी लिंक्ड सेविंग स्कीम (ईएलएसएस)
यह किसी अन्य इक्विटी म्यूचुअल फंड की तरह होती है लेकिन इसमें निवेश पर कर लाभ मिलता है। इसमें एकमुश्त निवेश के साथ ही सिस्टमेटिक इनवेस्टमेंट प्लान (एसआईपी) के जरिए भी धन लगाया जा सकता है। एसआईपी में आपको प्रतिमाह समान राशि के निवेश के साथ लागत कम करने का फायदा मिलता है। शाह के मुताबिक, 'बाजार की मौजूदा स्थिति में आपको अधिक खरीदारी करने का मौका मिलेगा। अगर एक लाख रुपए की आपकी सीमा समाप्त नहीं हुई है तो ईएलएसएस निवेश का एक अच्छा विकल्प है।'

पब्लिक प्रॉविडेंट फंड (पीपीएफ)
पीपीएफ में एक वर्ष में न्यूनतम 500 रुपए और अधिकतम 70,000 रुपए का निवेश किया जा सकता है। अन्य इंस्ट्रूमेंट की तरह इसमें प्रतिवर्ष समान राशि के निवेश की जरूरत नहीं होती। आप अपनी सुविधा और जरूरत के अनुसार निवेश कर सकते हैं। वैश्विक मंदी और नकदी के संकट की वजह से इस समय ब्याज दरों में नरमी का दौर चल रहा है और आने वाले समय में दरें और गिरने की उम्मीद है। ऐसे में पीपीएफ में 8 फीसदी सालाना का चक्रवृद्धि रिटर्न इसे निवेश का एक आकर्षक विकल्प बनाता है।
फिक्स्ड डिपॉजिट (एफडी)
बैंकों की सावधि जमा योजना या एफडी कुछ वर्ष पहले तक निवेशकों के बीच काफी लोकप्रिय थी। लेकिन बाद में इक्विटी और अन्य विकल्पों में रिटर्न बढ़ने की वजह से इसे लेकर लोगों की रुचि काफी कम हो गई थी। शेयर बाजारों में भारी गिरावट आने के बाद एफडी में निवेश को काफी पसंद किया जा रहा है। एफडी में पांच वर्ष से अधिक समय के लिए निवेश करने पर ही कर लाभ मिलता है। लेकिन इसमें रिटर्न पर कर चुकाना होता है। बाजार की मौजूदा स्थिति में एफडी की तुलना में पीपीएफ फायदेमंद है क्योंकि पीपीएफ पर रिटर्न कर मुक्त होता है। दोनों ही मामलों में धन कम से कम पांच वर्षों के लिए ब्लॉक हो जाता है। एफडी में आप पांच वर्ष बाद पूरा धन निकाल सकते हैं लेकिन पीपीएफ में जमा रकम का कुछ हिस्सा ही निकालने की सुविधा होती है।

अन्य कर बचत योजनाएं
अन्य इंस्ट्रूमेंट में डाकघर की जमा योजनाएं और डेट म्यूचुअल फंड शामिल हैं। लेकिन इनमें निवेश से पहले आपको आर्थिक हालात पर नजर डालनी चाहिए। पिछले वर्ष की तुलना में आर्थिक हालात काफी बदल गए हैं, ऐसे में अच्छा फायदा कमाने के लिए आपको निवेश की रणनीति भी बदलनी चाहिए। फाइनेंशियल प्लानर्स एंड कंसल्टेंट्स के प्रबंध निदेशक वीर देसाई का कहना है कि मौजूदा हालात में निवेशकों को दो बातों का ध्यान रखना चाहिए। पहली, निवेश की सुरक्षा और दूसरी कि अगर बाजार चढ़ता है तो उन्हें कैसे फायदा मिलेगा। इन दोनों बातों को ध्यान में रखते हुए पीपीएफ में 70,000 रुपए और शेयर बाजार में निवेश के लिए एसआईपी के जरिए बाकी के 30,000 रुपए का निवेश बेहतर रहेगा। इस तरीके से आपको निवेश पर सुरक्षा के साथ ही बाजार की तेजी से लाभ उठाने का मौका भी मिलेगा।

अगले वर्ष आप बाजार की स्थिति के अनुसार चाहें तो अपने पोर्टफोलियो में बदलाव कर सकते हैं। लेकिन एक बात याद रखें कि वर्ष की शुरुआत से ही कर बचाने की योजना पर अमल करना आपके लिए बेहतर नहीं होगा। साल के अंत में जल्दबाजी में निवेश करने से आप नुकसान उठा सकते हैं।

इक्विटी में निवेश बढ़ाने का यह सही मौका है

शेयर बाजार में पैसा बने का बुनियादी मंत्र है- सस्ते वैल्यूएशन पर खरीदारी कीजिए और महंगे दाम पर बेचिए। यह कहना जितना आसान है, करना उतना ही
मुश्किल। हालांकि, कई लोग सस्ती कीमत पर शेयर नहीं खरीद पाते हैं। वह ऊंचे दाम पर बिकवाली से भी चूक जाते हैं।

अगर पहले के चलन पर नजर डालें तो यह बात साफ तौर पर उभर कर सामने आती है कि छोटे निवेशक अक्सर मुनाफा बनाने का मौका चूक जाते हैं। पिछले साल शेयर बाजार में आई जबरदस्त गिरावट के बाद भारतीय निवेशक भी जोखिम उठाने से बच रहे हैं। ज्यादातर लोगों ने इक्विटी में आई गिरावट के बाद सुरक्षित डेट बाजार का दामन थाम लिया। हालांकि, इस साल मार्च के शुरुआती हफ्ते से शुरू हुई तेजी के बाद यह सवाल उठने लगा है कि इक्विटी में निवेश बढ़ाने का यह सही मौका है या नहीं?

ईटी यहां आपको बता रहा है कि क्यों यह इक्विटी में निवेश करने का सही वक्त है। पूंजी पर अधिकतम रिटर्न हासिल करने के लिए आप निवेश करते हैं। पिछले साल डेट प्रोडक्ट्स ने निवेशकों को बेहतर रिटर्न दिए, लेकिन आने वाले समय में इनसे वही रिटर्न मिलना मुश्किल लग रहा है। पिछले कुछ समय से ब्याज दरों में तेजी से कमी आई है, ऐसे में डेट निवेश से बेहतर रिटर्न शायद न मिले। पिछले कुछ महीनों के दौरान भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने पॉलिसी दरों में कई बार कटौती की है। रेपो दर घटकर 4.75 फीसदी तक आ गई है। कुछ महीने पहले यह 7 फीसदी थी। कैश रिजर्व रेशियो भी 6 फीसदी से घटकर 5 फीसदी हो गया है। कुछ महीने पहले के दोहरे अंकों के मुकाबले कॉल रेट फिलहाल 2.2-4.3 फीसदी के बीच चल रहे हैं।

कोटक महिंद्रा एसेट मैनेजमेंट के सीईओ संदेश किरकिरे के मुताबिक, ब्याज दरों में कमी आने के बाद डेट प्रोडक्ट्स पर रिटर्न घटना तय है। कुछ समय पहले तक सीडी 8 फीसदी पर कारोबार कर रहे थे, अब वे घटकर 5 फीसदी तक आ चुके हैं। इससे डेट इंस्ट्रूमेंट्स पर रिटर्न में और कमी आएगी। शॉर्ट टर्म डेट वाली म्यूचुअल फंड योजनाओं पर रिटर्न तो घटना भी शुरू हो गया है। इस बीच पिछले दो महीनों में सेंसेक्स में जबरदस्त तेजी आई है। यही नहीं अर्थव्यवस्था की वापसी के संकेतों के बीच शेयर बाजारों के आगे भी अच्छा प्रदर्शन करने की उम्मीद है। किरकिरे ने कहा, 'अर्थव्यवस्था वापसी की राह पर है। अगली कुछ तिमाहियों में मुझे कंपनियों का मुनाफा बढ़ने की उम्मीद है। ऐसे में इक्विटी निवेश के बारे में विचार करना गलत नहीं होगा।'

म्यूचुअल फंड हो सकते हैं आपके लिए बेस्ट ऑप्शन

सेंसेक्स ने 11,000 अंक पर पहुंच कर बाजार में हलचल पैदा कर दी है। बाजार विशेषज्ञ भी एक बार फिर से एक्शन में आ गए हैं। जाहिर है सभी के बाजार को लेकर अपने - अपने विचार हैं। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि बाजार जल्द ही नई ऊंचाइयों को छूएगा , वहीं कुछ का दावा है कि अगर निवेशक अपने निवेश को दो साल तक बनाए रखने के लिए तैयार है तो उसके लिए शेयरों में संभल कर किया गया निवेश फायदेमंद साबित होगा।

लेकिन मुश्किल यह है कि ज्यादातर संभावित निवेशक यह नहीं जानते कि शेयर बाजार में निवेश कैसे किया जाए और कैसे जोखिम को कम कर बाजार से मिलने वाले रिटर्न का फायदा उठाया जाए। यही वजह है कि बहुत कम लोग निवेश के लिए शेयर बाजार को चुनते हैं। छोटे निवेशकों के पास निवेश के लिए ही इतनी कम पूंजी होती है कि वे कम जोखिम के साथ अच्छे रिटर्न के लिए सलाहकार की सेवाओं को वहन नहीं कर सकते। ऐसे में शेयर बाजार का फायदा कुछ लोगों के हाथों में ही पहुंच पाता है। लेकिन अब सुकून वाली बात यह है कि आपको महंगी फीस खर्च कर किसी एक्सपर्ट की सर्विस लेने की कोई जरूरत नहीं है क्योंकि अगर आप 100 रुपए जितनी कम राशि भी म्यूचुअल फंड में निवेश करते हैं तो म्यूचुअल फंड मैनेजर आपकी इस राशि को बेहतर तरीके से शेयर बाजार में निवेश करते हैं।

आप निश्चिंत होकर अपनी निवेश राशि को इन फंड मैनेजर के हाथों में देकर शेयर बाजार का लाभ उठा सकते हैं। इन कुशल फंड मैनेजरों के पास शेयर बाजार का अच्छा अनुभव होता है और ये उसी के आधार आपके धन का निवेश करते हैं। आइए जानते हैं कि आखिर यह सिस्टम काम कैसे करता है। दरअसल म्यूचुअल फंड निवेशकों के पूल से धन जमा करता है और उस धन को निवेशकों के लिए शेयर बाजार में लगाता है। इसके लिए वह मामूली शुल्क जो कि 1.5 से 2 फीसदी तक होता है , वसूल करता है।

निवेशकों के पास अपनी पूंजी को शेयर बाजार या डेट स्कीम ( जो कि फिक्स्ड इन्कम इंस्ट्रमेंट है ) या इन दोनों में बांट कर निवेश करने का विकल्प होता है। यहां निवेशक निवेश से पहले अपने उद्देश्यों के हिसाब से स्कीम के पहले से निर्धारित मानकों को ध्यान में रखते हुए विकल्प का चुनाव करता है।

एक्सपर्ट के अनुसार म्यूचुअल फंड में निवेश छोटे निवेशकों के लिए काफी फायदेमंद साबित होता है। क्योंकि ऐसे ज्यादातर निवेशकों को शेयर बाजार के बारे में पूरी जानकारी नहीं होती है। अग्रणी बैंक में काम करने वाले एक वेल्थ मैनेजर का कहना है , ' ज्यादातर लोगों के लिए शेयर बाजार अभी भी एक अनसुलझी पहेली है। वे बाजार के ऊपर जाने पर भी चिंतित दिखाई देते हैं , वहीं अगर बाजार गिरता है तो भी वे उतने ही भयभीत होते हैं। क्योंकि उनके पास न तो विशेषज्ञों की सेवाएं लेने के लिए पैसा होता है और न ही इतना समय कि वे रोजाना अपने शेयरों के उतार - चढ़ाव पर नजर रख पाएं। इसलिए बेहतर है कि अपने निवेश संबंधी निर्णय की जिम्मेदारी प्रोफेशनल फंड मैनेजर को दे दी जाए। '

इसके अलावा म्यूचुअल फंड में निवेश का विकल्प आपके पोर्टफोलियो को विविधता प्रदान करता है। हालांकि बहुत से लोग इस बात पर बहस कर सकते हैं कि अब जबकि किसी कंपनी का एक शेयर भी बेचा व खरीदा जा सकता है और अपने पोर्टफोलियो में विभिन्न सेक्टर के शेयरों को रखा जा सकता है तो फंड मैनेजर का क्या लाभ है ? लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि म्यूचुअल फंड बेहतर तरीके से विविधता प्रदान करता है। इस बारे में एक सर्टिफाइड फाइनेंशियल प्लानर कहते हैं , ' यदि आपका नजरिया सही नहीं है तो आप अपने निवेश को विविधता प्रदान नहीं कर सकते। जबकि फंड मैनेजर इस स्थिति में होता है कि वह आने वाले समय में लाभ देने वाले विभिन्न सेक्टरों की पहचान कर उनमें निवेश करता है। क्योंकि उसके साथ रिसर्च प्रोफेशनल की पूरी टीम रात - दिन इसी काम में लगी रहती है। '

म्यूचुअल फंड में निवेश करने का एक और सबसे महत्वपूर्ण फायदा सहूलियत भी है। मान लीजिए अगर आपने हर महीने 100 रुपए किसी इक्विटी स्कीम ( ओपन एंडेड ) में निवेश करना शुरू किया तो आप जब चाहें उस स्कीम से बाहर निकल सकते हैं और जब चाहें तब वापस प्रवेश कर सकते हैं। इसके अलावा आपको कर लाभ भी मिलता है।

उदाहरण के लिए यदि आपने किसी इक्विटी स्कीम में निवेश एक साल से ज्यादा तक बनाए रखा तो आप लॉन्ग टर्म कैपिटल गेन टैक्स के दायरे में आएंगें , जो कि इस समय शून्य है। इस बारे में वेल्थ मैनेजर कहते हैं , ' यह जरूरी है कि सबसे पहले फंड हाउस का पिछला रिकॉर्ड और उसकी प्रतिष्ठा पर ध्यान देने के साथ तीन साल तक स्कीम के प्रदर्शन की समीक्षा की जाए। यह देखें कि स्कीम ने तेजी और मंदी के समय कैसा प्रदर्शन किया। इससे आपको फंड मैनेजर के निवेश की शैली और उसकी दक्षता के बारे में सही जानकारी मिल जाएगी।

Wednesday, May 6, 2009

What should be your investment strategy now?

Financial Year 2008-2009 has been one of the roughest years not just for Corporate India but also for small businesses, individuals and families.

As one enters the new financial year, the key questions in every person’s mind are “Where are we headed? Is our business or job secure? Where do we park our money and more importantly what should be our strategy now?”

Equity markets have their own way of surprising everyone. The rhetoric of gloom and doom was so strong that everyone took for granted that the only way the markets could go was down. Once again, the uncertainty (though on the upside now) witnessed in the last 3 weeks has been unprecedented. The Sensex has once again kissed 11000 but no one knows where the market will head two months down the line.

There is still no improvement in the global economic scenario however there are several measures that have been taken by governments and central banks around the world with the latest being the $ 1 trillion infusion as emergency aid. The scenario today is far different than what has been in the past and looking at history to provide answers might not help at all. Nobody has any clue where we will land up 6-8 months down the line.

Our own markets have been plagued with several problems right from corporate governance issues to the upcoming general elections. BJP or Congress coming to power could be a non event or even a positive trigger for the markets however the formation of a third front could mean pain for the stock markets. FIIs seem to have started buying as is evident by the purchases in the last several days. Mutual Funds and high net worth investors are still sitting on piles of cash that could enter the market once the indices move further by another 10-15%.

At the same time, there are very few buyers of Real Estate and banks have been cautious in disbursing loans. Gold which touched a high of 15700+ is currently down to around 14700 with few takers. On the debt side, interest rates on Fixed Deposits are down and bond markets have become extremely volatile.

So what should your financial strategy be today?

The first step that one must do is to understand one’s financial goals. Ask yourself “What are my short (0-2), mid(2-5) and long term financial goals(5-25 years)? Is my income stable or is there a chance of a job loss or slowdown in business?” Once you have a solid understanding of these areas, the next step is to figure out where you are today and the third step would then be to allocate assets prudently in line with your goals and personal situation. The actions will vary from person to person but here are some general guidelines on what you could do today.

Equity:
There is no way you can time the bottom or invest at the bottom and hence the best strategy is to invest in a staggered manner every month. Wait for sharp corrections to invest lump sum amounts but continue or start off monthly equity investments. A lot of money is actually lost waiting for corrections and when the correction happens, waiting for further correction to happen. Yes there will be days when the sky will look like its falling but that’s how equity markets actually behave. Before you do equity investments, understand your actual tolerance to risk and not what you think is your tolerance to risk. This is easier said than done because it is only when the rubber meets the road do you come to know your actual tolerance.

Gold:
In an era of a weak dollar, Gold will shine and could go much higher from current levels. However if you have bought gold long time back, Rs. 14800-15700 is a great price to partially book profits or get back into cash. There have been noises of gold reaching 20000 levels. However the potential upside from current levels can only be sizeable if gold is bought at much lower levels. A good price to enter gold can be around 11000-12000. Over the next 2-3 years gold could shine but book profits regularly and this is certainly a time to do so.

Real Estate:
Recently we read a column about some increase in real estate sales. The ground reality is that things are getting from bad to worse. There are still very few transactions happening barring a few instances where prices have been slashed down sharply. Banks are offering innovative interest rate schemes though they have not reduced interest rates sharply. October to December period could see a further 20-25% correction in prices and interest rates going back to around 8%. You might well be able to afford a bigger house if you are prudent enough to ignore the noise of last few flats or the best time to buy real estate.

Contingency Funds:
Keep sufficient contingency funds in Fixed Deposits, Short Term Income Funds and Floating Rate Income Funds. Make sure that you do not pile up too much of loans just because it is going to get cheaper. Your repayment ability is far more important and in an uncertain economic environment, it’s always better to be low on liabilities (Debt Diet).

Finally it’s not how much you earn but how much you keep that’s important. Aim to save far more today than you would in good times. Savings done in these times can ensure that you sail through future financial storms comfortably.
-Amar Pandit

Tuesday, May 5, 2009

Are you driving your car on one wheel?

Reena and Rahul’s wedding gift was a new car. They were really excited about it. Both of them had had several dreams about car. Thoughts were of driving the car, its maintenance, washing and cleanliness etc.

Upon returning from their honeymoon first thing Rahul did was to rush to the car. He sat next to the front right wheel and tried moving it. He tried very hard but unfortunately car did not move. Next day, Reena casually mentioned about it to her colleague in office who was ‘well experienced’ in moving the car. She gave some real insights. Reena knew exactly where Rahul had missed out. Moment she reached home, she went to the car. She now knew that if the car has to move then the rear left wheel has to rotate. That is the trick. She put in lots of efforts. Her clothes got dirty but car did not move. That evening on TV there was this new show on ‘How To Move Your Car’. Both Reena and Rahul finished their dinner early and sat down to watch the show. Reena had kept paper and pen ready to take down notes. The show gave tremendous insight about how critical is the front left wheel for moving the car. After the show, both Reena and Rahul went to the car. Again lots of efforts to rotate front left wheel and again same result.

Next few days Rahul was traveling for work. Reena also had important Seminar. Finally on Sunday they picked up some real good magazines which gave tips on moving the car. Magazines had nice Q&A where queries of readers were answered. After reading all of them they realized their mistake. The fact of the matter was that if car has to move then rear right wheel has to move. Post lunch they both went to the car and tried moving rear right wheel. By this time their enthusiasm had disappeared. When car did not move, they just shrugged it off. In coming months they would once in a while try to move the car by moving one of its wheels but that would not yield result. Finally they started blaming it on destiny. After all, they were really putting in lots of efforts and hard work to move the car.

Does the above story sound weird?

Let me rewrite it for you.

Reena and Rahul were really excited about their marriage and life together. Both of them had several thoughts and plans. One of their plans was to create lots of wealth.

First thing upon returning from honeymoon Rahul did was to list down expenses. He was very clear if wealth has to be created then expenses must reduce. They started living frugal life for some time but over the months it did not yield desired results. When Reena mentioned this to her colleague in office, she said real trick is to increase investment. Investment is key to wealth creation. Reena was convinced. Unless money is not invested well, their wealth tree will never grow. Their concentration was now on investment. Again some time passed but there was no major forward movement. When they heard of the show “Debt the wealth death” they knew what was killing their wealth. Once again focus was to eliminate entire debt. In next two years all their debt was paid back. Yet they did not see enough wealth. At a friend’s party one of the neo-rich was explaining his success story. How only by earning lots of money he could live a fancy life. He splurged regularly. Also had some borrowings etc. however all this did not bother him much because he was earning much more. Reena and Rahul were slowly losing hope of wealth creation. However they now decided to increase their earnings. They both switched to high paying jobs. Alas, their balance sheet was not growing.

Does this story make sense?

Relate both stories and you will know why wealth is not being created.

If a car has to move all four wheels of the car have to move simultaneously and in the same direction – they have to be synchronized. If wealth has to be created all four wheels of finance; income, expense, assets (investments) and liabilities (borrowings) have to be synchronized.

More often than not, we focus on each aspect in isolation. Based on what our friends and colleagues say or what we read or what we hear in social gathering, sometimes we focus on reducing debt. Suddenly we read something and focus shifts to investments. If expert on TV show says reducing of expenses is key to wealth creation, we prepare ‘money saving plans.’ Unfortunately none of these last for long.

To create real long term wealth all the efforts have to be simultaneous and most importantly continuous.

Family budget will help gauge income and expenses. Balance-sheet will show us assets and liabilities. Treat them as two axels of car with wheels at each end.

If all four wheels of car move in synchronized manner, car will move ahead effortlessly. Ignore any one and you will end up working hard but without much forward movement.

Wealth creation and preservation is about moving all four wheels simultaneously and in a synchronized manner.
- Gaurav Mashruwala

Monday, May 4, 2009

डिफ्लेशन का मतलब क्या है?

अर्थशास्त्र की किताबों में अपस्फीति यानी डिफ्लेशन को कुछ इस तरह बयां किया जाता है-अपस्फीति उस स्थिति को कहते हैं जिसमें कमोबेश सभी वस्तुओं की कीमत में गिरावट आती है। लेकिन यह परिभाषा जितनी आसान दिखती है समझने में उतनी सरल नहीं है। इसे समझने के लिए पहले उन वजहों को जानना पड़ेगा जिनके चलते यह स्थिति पैदा होती है।

डिफ्लेशन के क्या कारण हैं?

डिफ्लेशन की स्थिति किन कारणों से पैदा होती हैं, इसको लेकर अर्थशास्त्रियों की अलग-अलग राय है। क्लासिकल इकनॉमिस्ट मानते हैं कि यह मौद्रिक घटना है यानी ऐसा मुदा की मांग और आपूर्ति में असंतुलन से होता है। इसे इस तरह समझा जा सकता है कि मांग और आपूर्ति का हिसाब किताब दूसरी कमोडिटी की तरह मुद्रा में भी होता है। अगर मुद्रा की आपूर्ति मांग से कम है तो उसकी कीमत बढ़ जाएगी। इससे हमें सामान और सेवाएं खरीदने के लिए कम मुद्रा की जरूरत होगी। इसका मतलब उस स्थिति में सामान और सेवाओं की कीमत घट रही है।

दूसरी विचारधारा वाले अर्थशास्त्रियों का मानना है कि बहुत ज्यादा उत्पादन होने या मांग घटने से डिफ्लेशन की स्थिति पैदा होती है। मतलब, जब बाजार में सामान या सेवाओं की उपलब्धता मांग से ज्यादा हो जाती है तो उत्पादन आधिक्य की स्थिति बन जाती है। इससे कीमतों में गिरावट आती है। लेकिन इसके पुराने उदाहरण बताते हैं कि डिसइनफ्लेशन मांग में गिरावट और मुद्रा की कम उपलब्धता के चलते होती है। मतलब, मुद्रा की आपूर्ति में गिरावट और अत्यधिक उत्पादन की स्थिति कदमताल करती हैं। अमेरिका में 30 के दशक की महामंदी और 90 के दशक में जापानी डिफ्लेशन के मामले में ऐसा ही हुआ था।

इसके दुष्प्रभाव क्या हैं?

डिफ्लेशन के चलते बेरोजगारी बढ़ती है, यही इसका सबसे बड़ा दुष्प्रभाव है। जब कीमतों में चौतरफा गिरावट आती है तब लोग यह सोचकर सामान खरीदना कम कर देते हैं कि कीमतें और घटेंगी। इसके चलते मांग तेजी घटती है, कंपनियों के पास इन्वेंटरी का जखीरा बढ़ता है और उत्पादन में कमी की जाती है। इसके चलते कंपनियां कर्मचारियों की छंटनी करती हैं। दरअसल, महामंदी के दौरान अमेरिका में बेरोजगारी 25 फीसदी तक पहुंच गई थी। सरकारी और नियामक संस्थाओं के पास डिफ्लेशन रोकने के दो तरीके होते हैं। वे ज्यादा मांग पैदा करने के लिए सरकारी खर्च बढ़ा सकते हैं या रेपो और सीआरआर में कटौती कर व्यवस्था में मुद्रा की उपलब्धता बढ़ा सकते हैं।

इसे गंभीर आर्थिक समस्या क्यों माना जाता है?

ज्यादातर अर्थशास्त्री मानते हैं कि इन्फ्लेशन से ज्यादा मुश्किल डिफ्लेशन को काबू करना है। इस पर अंकुश लगाने के लिए दोनों उपाय किए जा सकते हैं। यानी सरकारी खर्च बढ़ाते हुए या इसके बगैर व्यवस्था में मुद्रा की उपलब्धता बढ़ाई जा सकती है। लेकिन इनके इस्तेमाल की भी कुछ सीमा है। सरकार कुछ राजकोषीय बाध्यताओं के चलते खर्च में लगातार बढ़ोतरी नहीं कर सकती। बड़ा राजकोषीय घाटा किसी अर्थव्यवस्था के लिए सही नहीं है। केंद्रीय बैंक भी हमेशा के लिए बाजार में मुदा की उपलब्धता बढ़ाता नहीं रह सकता। मुद्रास्फीति की रोकथाम में मुद्रा की उपलब्धता घटाना ज्यादा आसान है, क्योंकि रेपो रेट और सीआरआर में अंतहीन बढ़ोतरी चल सकती है। लेकिन अपस्फीति की स्थिति में इन दोनों दरों में कटौती की जाती है। ये शून्य या उससे नीचे नहीं किए जा सकते। ये सभी समस्याएं डिफ्लेशन को गंभीर आर्थिक समस्या बनाती हैं।

क्या है कारपोरेट गवर्नेंस?

कारपोरेट गवर्नेंस क्या है?

किसी भी कंपनी को चलाने की प्रणालियों, सिद्धांतों और प्रक्रियाओं के मिले-जुले रूप को कॉरपोरेट गवर्नेंस कहते हैं। इनसे दिशानिर्देश मिलता है कि कंपनी का संचालन और उस पर नियंत्रण किस तरह किया जाए कि इससे कंपनी की गुणवत्ता बढ़े और इससे संबंधित लोगों को दीर्घकालिक तौर पर लाभ हो। यहां संबंधित लोगों के दायरे में कंपनी का निदेशक मंडल, कर्मचारी, ग्राहक और पूरा समाज शामिल है। इस तरह से कंपनी का प्रबंधन अन्य सभी लोगों के लिए ट्रस्टी की भूमिका में आ जाता है।



कॉरपोरेट गवर्नेंस के सिद्धांत क्या हैं?

पूरी ईमानदारी और पारदर्शिता के साथ कंपनी के कारोबार को चलाना कॉरपोरेट गवर्नेंस का मूल सिद्धांत है। इसमें लेनदेन की गतिविधियों में ईमानदारी बरतना, कंपनी के परिणामों और फैसलों को सार्वजनिक करना, देश के कायदे-कानून का पालन करना और लोगों के भरोसे को बनाए रखना शामिल है। कॉरपोरेट गवर्नेंस पर बाजार नियामक संस्था सेबी ने खास तौर पर कहा है कि कंपनी का प्रबंधन करते हुए यह साफ किया जाना चाहिए कि व्यक्तिगत संपत्ति के दायरे में क्या है और कंपनी की संपत्ति के दायरे में क्या है।

कॉरपोरेट गवर्नेंस क्यों महत्वपूर्ण है?

जिन कंपनियों का कॉरपोरेट गवर्नेंस अच्छा होता है, उन पर लोगों का भरोसा कायम रहता है। किसी कंपनी में स्वतंत्र निदेशकों की उपस्थिति और उनकी सक्रियता से बाजार में उसकी स्थिति अच्छी होती है। आम तौर पर देखा जाता है कि विदेशी संस्थागत निवेशक जब किसी कंपनी में अपना निवेश करना चाहते हैं तो वे कंपनी के कॉरपोरेट गवर्नेंस पर खासा ध्यान रखते हैं।

साथ ही कॉरपोरेट गवर्नेंस उस कंपनी के शेयरों की कीमत पर भी असर डालता है। यदि किसी कंपनी का कॉरपोरेट गवर्नेंस बेहतर होता है तो बाजार से उसे रकम जुटाने में भी आसानी होती है। लेकिन इन सबके बीच दु:खद बात यह है कि कॉरपोरेट गवर्नेंस की चर्चा तभी होती है, जब बड़े पैमाने पर कोई घपलेबाजी होती है।

कॉरपोरेट गवर्नेंस का मसला इन दिनों क्यों चर्चा में है?

आईटी कंपनी सत्यम के संस्थापक रामलिंगा राजू की करोड़ों की घपलेबाजी से कॉरपोरेट गवर्नेंस का मसला सतह पर आ गया है। असल में बीते साल के 16 दिसंबर से ही सत्यम में गड़बड़ी की आहट आने लगी थी। उस वक्त कंपनी ने 1.3 अरब डॉलर खर्च कर मेटास प्रॉपर्टीज में हिस्सेदारी खरीदने की घोषणा की थी।

इस घोषणा के बाद कंपनी के शेयरधारकों में खलबली मच गई और इसके शेयर जमीन पर आ गए। परिणाम यह हुआ कि कंपनी को अपना फैसला वापस लेना पड़ा। बाद में राजू ने स्वीकार किया कि कंपनी के मुनाफे को गलत तरीके से पेश किया गया और कंपनी के पास फंड बहुत ही कम है। सत्यम की इस गड़बड़ी को भारत का सबसे बड़ा कॉरपोरेट घोटाला कहा जा रहा है। विडंबना है कि सत्यम ने बेहतरीन कॉरपोरेट गवर्नेंस के लिए सितंबर 2008 में गोल्डन पीकॉक ग्लोबल अवॉर्ड जीता था।

क्या होता है लीज अग्रीमेंट और क्या हैं इसके फायदे

किराए पर मकान लेने की बात सुनने में तो आसान लगती है, लेकिन इसकी प्रक्रिया में ऐसी कुछ कठिनाइयां आ सकती हैं, जिसका ध्यान रखना बेहद जरूरी है। किसी भी
मकान को किराए पर लेने से पहले किराएदार को मूल बातों का ठीक से पता कर लेना चाहिए। मकान किराए पर लेने का मन बन जाने पर सभी दस्तावेज सॉलिसिटर से सत्यापित करा लेना बेहतर रहता है। इससे आप बाद की मुश्किलों से बच सकते हैं। किराए से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण दस्तावेज और मुद्दे इस प्रकार हैं :

० किराएदार को यह सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि मकान मालिक के पास प्रॉपटी का मालिकाना हक हो।

० उसे यह डिक्लेरेशन ले लेना चाहिए कि मकान से संबंधित कोई कानूनी मामला नहीं चल रहा।

० ससायटी के शेयर सर्टिफिकट की जांच करा लेनी चाहिए। यह जरूरी है क्योंकि अधिकतर मामलों में किराएदार को सिक्यूरिटी डिपॉजिट देना पड़ता है।

० मकान को किराए पर देने की ससाइटी से अनुमति। किराएदार को उन नियमों और शर्तो को समझ लेना चाहिए जिसके तहत अनुमति दी गई है।

० यह सुनिश्चित कर लीजिए कि पहले के सभी टेलिफोन और बिजली बिलों का भुगतान कर दिया गया है।

० समझौते पर स्वयं मकान मालिक या उसके द्वारा अधिकृत पावर ऑफ अटर्नी के हस्ताक्षर होने चाहिए।

लीज अग्रीमंट में क्या जरूरी

लीज अग्रीमंट ठीक तरह से लिखा होना चाहिए। खास तौर से उसमें नीचे दिए जा रहे बिंदू शामिल होने जरूरी हैं-

० किराया बढ़ाने संबंधी शर्त- किराया कब और कितना बढ़ाया जाएगा।

० किराए में शामिल की गई सभी सुविधाओं का ब्यौरा।

० ससायटी को दिया जाने वाला मेंटेनेंस चार्ज। क्या यह किराए में शामिल है? इसका भुगतान कौन करेगा।

० घर में होने वाली नियमित मरम्मत और मेंटेनेंस का खर्च कौन वहन करेगा।

० फिक्सचर और फिटिंग के कार्य मकान मालिक कराएगा या किराएदार।

० समझौता रद्द करने का आधार। किसी पक्ष द्वारा सूचना देने की मियाद।

० यदि लीज डीड का रजिस्ट्रेशन कराना जरूरी है, तो रजिस्ट्रेशन पर आने वाला खर्च कौन उठाएगा।

० लीज का नवीनीकरण।

० सिक्यूरिटी डिपॉजिट और अडवांस्ड रेंट। क्या सिक्यूरिटी डिपॉजिट पर ब्याज लगेगा? आमतौर पर यह नहीं लगता है।

० पार्किंग एरिया

० ससायटी में प्रवेश करने का शुल्क (कुछ ससायटी शुल्क वसूलती हैं।)

० किराएदार को दिया गया कॉमन एरिया, गार्डन और टेरेस राइट

० म्यूनिसिपल ड्यूज और प्रॉपर्टी टैक्स

ये मुद्दे बड़े शहरों में काफी महत्वपूर्ण हो जाते हैं, क्योंकि दूसरे शहरों की तुलना में इनमें किराया अधिक होता है। दूसरे, यहां 10-15 महीने तक के किराए जितनी रकम सिक्यूरिटी डिपॉजिट के रूप में देनी होती है। इसका मतलब है लीज की पूरी अवधि का किराया यहां अडवांस में ही ले लिया जाता है। इन मुद्दों का ध्यान रखने से किराएदार भविष्य की कई समस्याओं से बच सकते हैं।

क्या है एनआरआई/एनआरओ अकाउंट?

एनआरई/एनआरओ अकाउंट

सरकार प्रवासी भारतीयों यानी एनआरआई को विदेश से यहां रुपया-पैसा भेजने के लिए खाता खोलने की सहूलियत देती है। इनमें एनआरई और एनआरओ एकाउंट सबसे लोकप्रिय हैं।

आइए इन एनआरआई खातों के बारे में विस्तार से जानते हैं। एनआरई (नॉन रेजिडेंट एक्सटर्नल) खाते विदेश में कमाई रकम भारत भेजने में एनआरआई के खासे मददगार साबित हैं। ये खाते चालू, बचत या सावधि जमा खाते हो सकते हैं। ऐसे खाते को खाताधारक के अलावा निवासी भारतीय भी चला सकता है। निवासी भारतीय देश में स्थानीय मुदा में पैसा जमा कर सकता है। लेकिन इसके लिए उसके पास पावर ऑफ अटॉर्नी होना जरूरी है।

एनआरओ (नॉन रेजिडेंट ऑर्डिनरी) खाता खोलने पर खाताधारक को देश-विदेश दोनों में कमाई गई रकम जमा करने की सुविधा मिलती है। एनआरओ खाता भी एनआरई की तरह चालू, बचत या सावधि जमा खाता हो सकता है। लेकिन इसके लिए संयुक्त खाताधारक का भारतीय निवासी होना जरूरी है। इस खाते में विदेशी मुद्रा में हुई कमाई, प्रॉपर बैंकिंग चैनल या एनआरई खाते से हासिल रेमिटेंस या भारत से हासिल पुराना बकाया जमा किया जा सकता है। इस खाते में जमा हुई रकम का इस्तेमाल भारत में भुगतान या निवेश में ही किया जा सकता है।

एनआरई या एनआरओ खाता कैसे खोला जा सकता है?

दोनों खाते खोलने का एक ही तरीका है। इसके लिए एनआरआई को किसी अधिकृत बैंक में आवेदन करना होगा। इसके बाद उन्हें बिजली, पानी, टेलिफोन जैसे बिल, ड्राइविंग लाइसेंस, रेजिडेंट परमिट, प्राप्त किराया, पासपोर्ट, विदेशी या भारतीय बैंक के स्टेटमेंट जैसे दस्तावेज जमा कराने होंगे। साथ ही इसमें फॉरेक्स रेमिटेंस या एनआरई खाते से ट्रांसफर के जरिए न्यूनतम राशि जमा कराना जरूरी है।

एनआरई या एनआरओ खातों में क्या अंतर है?

एनआरई खाता विदेश से हासिल कमाई को जमा कराने के लिए होता है। एनआरओ में भारत में हुई कमाई जमा की जा सकती है। एनआरई में सिर्फ एनआरआई संयुक्त खाताधारक हो सकते हैं। एनआरओ में संयुक्त खाताधारक निवासी या अनिवासी भारतीय हो सकता है। एनआरई खाते में जमा रकम एनआरओ में ट्रांसफर की जा सकती है लेकिन एनआरओ से एनआरई में फंड ट्रांसफर नहीं हो सकता।

एनआरई से समूचे मूलधन की निकासी की जा सकती है लेकिन एनआरओ में यह संभव नहीं। एनआरओ में जमा मूलधन का इस्तेमाल सिर्फ स्थानीय भुगतान में हो सकता है। लेकिन दोनों खातों में जमा रकम पर मिले ब्याज को खाताधारक कहीं भी ले जाने को आजाद है। एनआरओ खाते से सालभर में 10 लाख डॉलर की निकासी की जा सकती है। एनआरओ खाते में जमा रकम पर ब्याज भारत में करयोग्य है लेकिन एनआरई खाते के साथ ऐसा कुछ नहीं है।

एनआरई खाते का क्या नफा और नुकसान है?

इस खाते में जमा रकम पर मिलने वाला ब्याज भारत में करमुक्त होता है। खाते में बची रकम पर संपत्ति कर नहीं लगता। इस खाते की रकम से खरीदे उपहार पर भी कर नहीं लगता। इस खाते का सबसे बड़ा नुकसान करेंसी रिस्क यानी विनिमय दर से जुड़ा जोखिम है। इसमें जमा रकम पर एनआरओ खाते के मुकाबले कम ब्याज मिलता है।

क्या है प्रत्यक्ष विदेशी निवेश/ FDI?

क्या है प्रत्यक्ष विदेशी निवेश / FDI?

सामान्य शब्दों में किसी एक देश की कंपनी का दूसरे देश में किया गया निवेश प्रत्यक्ष विदेशी निवेश यानी एफडीआई कहलाता है। ऐसे निवेश से निवेशकों को दूसरे देश की उस कंपनी के प्रबंधन में कुछ हिस्सा हासिल हो जाता है जिसमें उसका पैसा लगता है। आमतौर पर माना यह जाता है कि किसी निवेश को एफडीआई का दर्जा दिलाने के लिए कम-से-कम कंपनी में विदेशी निवेशक को 10 फीसदी शेयर खरीदना पड़ता है। इसके साथ उसे निवेश वाली कंपनी में मताधिकार भी हासिल करना पड़ता है।

एफडीआई दो तरह के हो सकते हैं-इनवार्ड और आउटवार्ड। इनवार्ड एफडीआई में विदेशी निवेशक भारत में कंपनी शुरू कर यहां के बाजार में प्रवेश कर सकता है। इसके लिए वह किसी भारतीय कंपनी के साथ संयुक्त उद्यम बना सकता है या पूर्ण स्वामित्व वाली सहायक कंपनी यानी सब्सिडियरी शुरू कर सकता है। अगर वह ऐसा नहीं करना चाहता तो यहां इकाई का विदेशी कंपनी का दर्जा बरकरार रखते हुए भारत में संपर्क, परियोजना या शाखा कार्यालय खोल सकता है। आमतौर पर यह भी उम्मीद की जाती है कि एफडीआई निवेशक का दीर्घावधि निवेश होगा। इसमें उनका वित्त के अलावा दूसरी तरह का भी योगदान होगा।

एफडीआई के क्या फायदे हैं?

एफडीआई से विदेशी निवेशक और निवेश हासिल करने वाला देश, दोनों को फायदा होता है। निवेशक को यह नए बाजार में प्रवेश करने और मुनाफा कमाने का मौका देता है। विदेशी निवेशकों को टैक्स छूट, आसान नियमों, लोन पर कम ब्याज दरों और बहुत सी बातों से लुभाया जाता है। एफडीआई से घरेलू अर्थव्यवस्था में नई पूंजी, नई प्रौद्योगिकी आती है और रोजगार के मौके बढ़ते हैं और इस तरह के बहुत से फायदे होते हैं।

क्या देश में एफडीआई संबंधी खास नियम कानून हैं?

सरकार ने एफडीआई के लिए सेक्टर विशेष और कारोबारी गतिविधियों की प्रकृति के हिसाब से नियम बनाए हुए हैं। उदाहरण के लिए, हीरे और बहुमूल्य पत्थरों के उत्खनन (माइनिंग) में एफडीआई के लिए सरकार से पूर्व अनुमति लेने की जरूरत नहीं है। इसमें रिजर्व बैंक को निवेश की रकम हासिल होने के 30 दिन के भीतर एक अधिसूचना भेजनी पड़ती है। इसके साथ ही संबंधित दस्तावेज विदेशी निवेशक को शेयर जारी किए जाने के 30 दिन के भीतर सौंपना पड़ता है। प्रसारण जैसे क्षेत्र में एफडीआई के लिए विदेशी निवेश संवर्धन बोर्ड (एफआईपीबी) से मंजूरी लेनी पड़ती है। कुछ खास क्षेत्रों में विदेशी निवेश की ऊपरी सीमा को लेकर भी कुछ नियम लागू हैं। निवेश के ये नियम एफडीआई और एफआईआई दोनों पर लागू होते हैं।

एफडीआई और एफआईआई निवेश में क्या अंतर है?

एफडीआई में किसी विदेशी कंपनी द्वारा देश में प्रत्यक्ष निवेश होता है जबकि एफआईआई यानी विदेशी संस्थागत निवेशक शेयरों, म्यूचुअल फंड में निवेश करते हैं। एफआईआई पार्टिसिपेटरी नोट, सरकारी प्रतिभूतियों, कमर्शियल पेपर वगैरह को निवेश माध्यम बनाते हैं। ज्यादातर एफडीआई की प्रकृति स्थायी होती है लेकिन बाजार में उथल-पुथल की स्थिति बनने पर एफआईआई जल्दी से बिकवाली कर निकल जाते हैं।

आपके निवेश पर भी पड़ता है तिमाही नतीजों का असर

कंपनियों के तिमाही नतीजे घोषित करने का समय फिर आ गया है। इस बार सिंतबर - दिसंबर की तीसरी तिमाही का बही - खाता पेश किया जा रहा है। वित्त वर्ष की तीन तिमाहियां बीत चुकी हैं और इस बार के नतीजे 2008- 09 में कंपनियों की आर्थिक स्थिति का स्पष्ट संकेत देंगे। विश्लेषक और निवेशक इनकी बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहे हैं क्योंकि कॉरपोरेट जगत पर मंदी के असर की जानकारी इनसे मिलेगी।

मंदी की मार लगभग सभी जगह देखी जा रही है और इस बार कंपनियों की आमदनी पर इसका असर नजर आ सकता है। इसके साथ ही यह भी पता चलेगा कि चुनौती के समय में प्रबंधन ने कितनी कुशलता से कारोबार को आगे बढ़ाया है।

क्या होते हैं तिमाही नतीजे ?

तिमाही नतीजों के जरिए कंपनियां तीन महीनों के अपने प्रदर्शन की रिपोर्ट पेश करती हैं। स्टॉक एक्सचेंजों के साथ लिस्टिंग समझौते के तहत नतीजों की घोषणा करना कंपनियों के लिए जरूरी होता है। ये नतीजे जनवरी , अप्रैल , जुलाई और अक्टूबर में सार्वजनिक किए जाते हैं।

तिमाही आमदनी की घोषणाओं में आमतौर पर गैर ऑडिटेड वित्तीय नतीजे , तिमाही में कारोबार की स्थितियां और भविष्य में कारोबारी संभावनाओं का जिक्र होता है। आमदनी की रिपोर्ट में शुद्ध आय , प्रति शेयर आय , जारी कारोबार से आमदनी और शुद्ध बिक्री जैसी मद शामिल होती हैं। इससे कंपनी की वित्तीय स्थिति और कारोबारी माहौल को समझने में मदद मिलती है। निवेशकों को याद रखना चाहिए कि गैर ऑडिटेड आंकड़ों में वर्ष के अंत में कुछ बदलाव हो सकता है।

अगली तिमाहियों के अनुमान

कुछ कंपनियां इन नतीजों के साथ भविष्य के लिए अपने अनुमान भी जाहिर करती हैं। इन्हें गाइडेंस कहा जाता है। यह अगली तिमाही और वित्त वर्ष के लिए कारोबार के बारे में प्रबंधन का अनुमान होता है। कंपनी से वित्तीय उम्मीदें तय करने के लिए गाइडेंस महत्वपूर्ण होती है। अगर कंपनी की पिछली गाइडेंस और तिमाही नतीजे मेल खाते हैं तो इससे प्रबंधन की कुशलता का पता चलता है।

अगर कंपनी के अनुमान और उसके नतीजों में बड़ा अंतर होता है तो इसका मतलब है कि प्रबंधन पर आप आगे भी ज्यादा भरोसा नहीं कर सकते। इन्हीं अनुमानों के आधार पर छोटी अवधि के निवेशक कई बार किसी कंपनी के शेयर खरीदने या बेचने का फैसला भी करते हैं।

कंपनी के प्रदर्शन का अक्स

तिमाही नतीजे कंपनी के प्रदर्शन का बड़ा संकेत देते हैं। इसी वजह से विश्लेषक और निवेशक इनका इंतजार करते हैं। आमतौर पर विश्लेषक अनुमानों के आधार पर अपनी उम्मीदें जाहिर करते हैं। इन सभी अनुमानों को मिलाकर कंपनी के प्रदर्शन को देखा जाता है।

सच्चाई यह है कि आमदनी का अनुमान लगाना बहुत मुश्किल होता है। कंपनी की आय को लेकर ब्रोकरेज हाउस के अनुमान हकीकत से कुछ अधिक हो सकते हैं। कंपनियों के लिए खुद भी इनकी सही भविष्यवाणी करना आसान नहीं होता।

नतीजों के सीजन के लिए निवेश की रणनीति

कंपनियों के नतीजे आने के साथ ही उनके शेयर के दाम पर भी इनका असर दिखने लगता है। अगर नतीजे उम्मीद से बेहतर रहते हैं तो शेयर की कीमत चढ़ती है लेकिन अगर ये अनुमानों से कम या करीब रहते हैं तो इनमें गिरावट भी आ सकती है। अगर किसी कंपनी के आंकड़े लगातार कई तिमाहियों तक उम्मीद से कम रहते हैं तो हो सकता है कि कंपनी समस्याओं का सामना कर रही हो। लघु अवधि के निवेशक तिमाही नतीजों के आधार पर निवेश की रणनीति तैयार कर सकते हैं।

लंबी अवधि के निवेशक इन्हें देखकर यह अंदाज लगा सकते हैं कि उनकी कंपनी कैसा कारोबार कर रही है। किसी शेयर को आंकने के लिए उसके पिछले नतीजों को देखना भी जरूरी होता है। अगर प्रबंधन ने वर्ष की अपनी कारोबारी योजना का खुलासा पहले ही कर दिया है तो तिमाही नतीजों से निवेशक को यह पता चलता है कि योजना किस दिशा में और कितनी गति से बढ़ रही है।

निवेशकों को यह भी देखना चाहिए कि कहीं कंपनी ने आंकड़ों में कोई हेरफेर तो नहीं की है। उदाहरण के लिए कोई कंपनी मौजूदा तिमाही की आमदनी को जोड़कर उससे जुड़े खर्चों को अगली तिमाही में दिखाने के साथ अपना अधिक मुनाफा दिखाने की कोशिश कर सकती है। इसके अलावा वह अनुमानों पर पूरा उतरने के लिए तिमाही के अंत में उत्पादों को कम दाम पर भी बेच सकती है। ऐसा होने से कंपनी के वास्तविक प्रदर्शन का संकेत मिल पाना बहुत मुश्किल हो जाता है।

निवेशकों को तिमाही आंकड़ों की जानकारी अखबारों , बिजनेस चैनलों और कंपनी की वेबसाइट पर मिल सकती है।

क्यूआईपी क्या है?

क्यूआईपी के तहत कोई भी सूचीबद्ध कंपनी अपने शेयर, पूर्ण या आंशिक कंवर्टिबल डिबेंचर्स या फिर वारंट से इतर प्रतिभूति जारी करती है। इन्हें बाद में शेयरों में तब्दील किया जा सकता है, लेकिन क्यूआईपी केवल योग्य संस्थागत खरीदार यानी क्वॉलिफाइड इंस्टीट्यूशनल बायर (क्यूआईबी) के लिए ही होता है। क्यूआईपी कुछ खास लोगों या समूह को शेयर देने का एक जरिया होता है। हालांकि यह तरजीही शेयर देने के तरीके से अलग है। शेयर जारी करने की दूसरी विधियों के मुकाबले क्यूआईपी आसान होता है। इसमें बहुत अधिक औपचारिकताएं नहीं होतीं। इसे जारी करने के पहले सेबी को सूचना नहीं देनी पड़ती।

इसकी शुरुआत क्यों हुई?

साल 2006 में बाजार नियामक सेबी ने क्यूआईपी पेश किया था। इसके पहले सूचीबद्ध भारतीय कंपनियां विदेशी पूंजी पर बहुत अधिक निर्भर थीं। असल में भारतीय कंपनियों को घरेलू बाजार से पूंजी जुटाने में कई दिक्कतें होती थीं। वे पैसा जुटाने के लिए विदेशी मुद्रा परिवर्तनीय बॉन्ड (एफसीसीबी) और ग्लोबल डिपॉजिटरी रिसीट्स (जीडीआर) पर निर्भर थे। इस निर्भरता को कम करने या फिर रोकने के लिए सेबी ने क्यूआईपी की पेशकश की।

क्यूआईपी से संबंधित नियम-कानून कौन-कौन से हैं?

क्यूआईपी जारी करने के लिए कंपनी को कुछ कसौटियों पर खरा उतरना होता है। कंपनी का सूचीबद्ध होना इसकी पहली जरूरत है। दूसरा, कंपनी के शेयर आम निवेशकों के पास होने चाहिए। इसकी मात्रा सूचीबद्ध होने के दौरान होने वाले समझौते में तय किया जाता है। साथ ही कंपनी को क्यूआईपी लाने के दौरान कम से कम 10 फीसदी प्रतिभूतियां म्यूचुअल फंड योजनाओं के तहत जारी करना पड़ता है। यदि इश्यू का आकार 250 करोड़ रुपए तक है तो खरीदारों को संख्या कम से कम दो होनी चाहिए। यदि इश्यू का आकार 250 करोड़ रुपए से ज्यादा का है तो खरीदारों की संख्या 5 होनी चाहिए। कोई भी एक खरीदार इश्यू के मूल्य के 50 फीसदी से ज्यादा की खरीदारी नहीं कर सकता। साथ ही ऐसे किसी क्यूआईबी को इश्यू आवंटित नहीं किया जा सकता जो कंपनी के किसी भी प्रमोटर से संबंधित हो।

पिछले दिनों क्यूआईपी चर्चा में क्यों रहा?

रियल एस्टेट कंपनी यूनिटेक ने पिछले दिनों क्यूआईपी जारी किया था। यूनिटेक को पैसे की जरूरत थी। कंपनी ने क्यूआईपी के जरिए 1,620 करोड़ रुपए जुटाए। कंपनी में प्रमोटरों की हिस्सेदारी घटकर 51 फीसदी हो चली है। पिछले दिनों यह भी चर्चा थी कि एलआईसी हाउसिंग फाइनेंस भी क्यूआईपी जारी करने पर विचार कर रही है।

प्राइस अर्निंग रेश्यो क्या है?

मूल्य - आय ( पीई ) अनुपात क्या है ?

मूल्य अनुपात यानी प्राइस अर्निंग ( पीई ) अनुपात। यह दरअसल किसी भी शेयर का वैल्यूएशन जानने के लिए सबसे प्राथमिक स्तर का मानक है। दूसरे शब्दों में इसे इस तरह समझा जा सकता है कि यह अनुपात बताता है कि निवेशक किसी शेयर के लिए उसकी सालाना आय का कितना गुना खर्च करने के लिए तैयार हैं। सीधे शब्दों में किसी शेयर का पीई अनुपात दरअसल वर्षों की संख्या है , जिनमें शेयर का मूल्य लागत का दोगुना हो जाता है।

जैसे अगर किसी शेयर का मूल्य किसी खास समय में 100 रुपए है और उसकी आय प्रति शेयर 5 रुपए है , तो इसका मतलब यह है कि उसका पीई अनुपात 20 होगा। यानी अगर सारी परिस्थितियां समान हों तो 100 रुपए के शेयर का दाम 20 साल में दोगुना हो जाएगा। यानी उस शेयर का पीई अनुपात उस खास समय में 20 है।

किसी कंपनी के वैल्यूएशन में पीई का क्या महत्व है ?

पीई हमें केवल यह बताता है कि बाजार किसी शेयर पर कितना बुलिश या सकारात्मक है। पीई से अपने आप में कोई निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता। किसी भी नतीजे पर पहुंचने के लिए कुछ दूसरे पीई अनुपातों से इसकी तुलना जरूरी होती है। पहला , तो खुद उस कंपनी का पिछले 5-7 साल का ऐतिहासिक पीई। दूसरा , उसी के क्षेत्र में काम करने वाली दूसरी कंपनियों के पीई अनुपात और तीसरा , बेंचमार्क सूचकांक जैसे सेंसेक्स का पीई अनुपात।

किसी कंपनी का पीई बहुत ज्यादा होने से दो निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। पहला , कंपनी को उसके सही मूल्य से बहुत ज्यादा भाव मिल रहा है और इसलिए शेयर महंगा है। दूसरा , बाजार को यह पता है कि आने वाले दिनों में इस कंपनी की वृद्घि दर काफी अधिक रहने वाली है और इसलिए उसके लिए ऊंचे भाव पर भी बोली लगाई जा रही है।

ट्रेलिंग पीई और अनुमानित पीई क्या हैं ?

ट्रेलिंग पीई किसी शेयर की कीमत और पिछले 12 महीनों की उसकी आय के अनुपात को कहते हैं। इसी तरह अनुमानित पीई अगले 12 महीने की अनुमानित आय प्रति शेयर के आधार पर निकाला जाता है।

पीई से किसी शेयर की सही कीमत कैसे तय करें ?

अक्सर किसी कंपनी के लिए सारी परिस्थितियां समान नहीं होतीं। कंपनी की आय हर साल या तो बढ़ती है या घटती है। इसके अलावा कंपनी अगर एफपीओ के जरिए नए शेयर बाजार में लाती है तो उससे शेयरों की कुल संख्या में भी बढ़ोतरी होती है। इन सभी का उसकी आय प्रति शेयर पर असर पड़ता है।

अगर किसी कंपनी का ऐतिहासिक पीई पिछले पांच साल से 30 रहा हो और एकाएक बाजार की गिरावट के कारण वह 20 के पीई पर मिल रहा हो , तो वह शेयर सस्ता कहा जाएगा। लेकिन अगर वह कंपनी इंफोसिस हो जिसकी आय पर अमेरिका में संभावित मंदी के कारण असमंजस का माहौल बना हो , तो फिर एक नजर में आप 20 के पीई को सस्ता नहीं कह सकते।

बुक वैल्यू क्या है ?

बुक वैल्यू किसी भी कंपनी या वस्तु की वह कीमत होती है , जो एक खास समय पर उसे खुले बाजार में बेचने पर मिलेगी। मोटे तौर पर यह खरीद भाव में से डिप्रेशिएशन कीमत घटाकर प्राप्त हो सकती है। जैसे अगर आपने 5 लाख रुपए में एक कार खरीदी और अगर हर साल इसमें 15 फीसदी का डिप्रेशिएशन होता हो , एक साल बाद इसकी बुक वैल्यू 4.25 लाख रुपए होगी। ब्रिटेन में बुक वैल्यू को ही कंपनी का नेट असेट वैल्यू ( NAV) भी कहा जा सकता है , जिसे कुल परिसंपत्ति में से पेटेंट और साख की कीमत घटाकर प्राप्त किया जाता है।

बुक वैल्यू ऑफ इक्विटी प्रति शेयर क्या है ?

कंपनी के शेयर का जो न्यूनतम मूल्य होता है उसे बुक वैल्यू ऑफ इक्विटी प्रति शेयर कहते हैं। दूसरे शब्दों में किसी कंपनी के सामान्य शेयरों की कीमत में रिजर्व नकदी जमा को जोड़ कर और लाभांश एवं शेयर बायबैक के मद में खर्च की गई रकम को घटाकर जो मूल्य प्राप्त होता है , उसे ही बीवीपीएस कहते हैं। बीवीपीएस किसी भी शेयर के वर्तमान मूल्य का अंदाजा तो देता है , लेकिन इससे उसके भविष्य की संभावनाओं का पता नहीं चलता है। इसलिए बीवीपीएस के आधार पर किसी भी शेयर का पक्का मूल्यांकन करना सही नहीं होता।

टॉप और बॉटम क्या होते हैं?

चढ़ते हुए शेयर भाव में बार चार्ट जहां से नीचे की ओर मुड़ता है, वहां के फॉर्मेशन को टॉप या शीर्ष कहते हैं। इसी तरह गिरते हुए भाव में बार चार्ट जहां से चढ़ना शुरू कर देता है, वहीं बॉटम बन जाता है।

टेक्निकल एनालिसिस में टॉप और बॉटम का बहुत महत्व होता है। अगर किसी चार्ट में हर अगला टॉप और बॉटम क्रमश: पिछले टॉप और बॉटम से ऊंचा हो, तो शेयर या सूचकांक तेजी के दौर में माना जाता है। इसी तरह अगर किसी चार्ट में हर अगला टॉप और बॉटम क्रमश: पिछले टॉप और बॉटम से नीचे हो, तो शेयर या सूचकांक मंदी के दौर में माना जाता है।

ट्रेंड लाइन क्या है?

बार चार्ट में किसी शेयर के हर दिन के उच्चतम और न्यूनतम दामों को एक सीधी रेखा से मिलाने से जो लाइन मिलती है, उसे ट्रेंड लाइन कहते हैं। चाटिर्स्ट गिरते हुए शेयर की ट्रेंड लाइन खींचने के लिए उसके उच्चतम भाव से लाइन खींचते हैं, जबकि चढ़ते हुए शेयर की ट्रेंड लाइन खींचने के लिए न्यूनतम भाव से लाइन खींची जाती है। ज्यादा सही नतीजों के लिए किसी एक दिन के उच्चतम या न्यूनतम भाव की जगह कई दिनों के उच्चतम या न्यूनतम भावों के घनत्व वाले इलाके से लाइन खींची जाती है।

ट्रेंड लाइन ट्रेडरों का सबसे अच्छा दोस्त होता है, जिसे अंग्रेजी में 'ट्रेंड इज द बेस्ट फ्रेंड' भी कहते हैं। ट्रेंड टूटने का अर्थ होता है कि शेयर की चाल का रुख बदलने वाला है। यानी अगर शेयर भाव गिर रहा हो और एकाएक शेयर की कीमतें ऊपर से खींची गई ट्रेंड लाइन को काटकर ऊपर की ओर आने लगें, तो समझना चाहिए कि बढ़त शुरू होने वाली है। इसके उलट अगर चढ़ते हुए शेयर या इंडेक्स के निचले भाव से खींची गई ट्रेंड लाइन कीमतों के ऊपर जाने लगे, तो तेजी के सौदे काट लेने चाहिए।

स्टॉपलॉस क्या है?

स्टॉपलॉस किसी शेयर या सूचकांक की वह कीमत होती है, जिस पर पहुंचने के बाद सौदे काट दिए जाते हैं। जैसे बढ़ते हुए भाव के किसी भी चार्ट में जिस जगह भाव ट्रेंड लाइन को काट कर नीचे की ओर जाए, वहीं स्टॉपलॉस होता है। इसी तरह मंदी के सौदों में भाव जहां ट्रेंड लाइन को काटकर ऊपर आ जाए, वहीं उन सौदों का स्टॉपलॉस होता है। जब स्टॉपलॉस को भाव के साथ बढ़ाया या घटाया जाता है, तो उसे ट्रेलिंग स्टॉपलॉस कहते हैं।

क्या होते हैं वोलैटिलिटी इंडेक्स और बीटा?

बीते एक महीने के दौरान शेयर बाजारों में काफी उथल-पुथल देखने को मिली है। अप्रैल के महीने में बाजारों में देखी गई मजबूत रैली में इंट्रा-डे उथल-पुथल की कोई कमी नहीं रही। शेयर बाजारों, मुद्राओं और कमोडिटी बाजारों में दिखे हालिया चलन ने निवेशकों को भ्रमित कर दिया और ज्यादा रिटर्न पर गौर करने के बजाय लोग अब पोर्टफोलियो की सुरक्षा को अहमियत दे रहे हैं। बाजार में पल-पल बदलते हवा के रुख को उठापटक या वौलेटिलिटी कहा जाता है।

हालांकि, इस उथल-पुथल का फायदा उठाने के लिए आपको सबसे पहले यह जानना होगा कि वौलेटिलिटी होती क्या है और इसे कैसे आंका जाता है। सामान्य तौर पर जोखिम के रूप में परिभाषित की जाने वाली वौलेटिलिटी शेयर की कीमत में आने वाले बदलाव की दर होती है। वौलेटिलिटी आंकने के दो लोकप्रिय तरीके हैं। एक को वौलेटिलिटी इंडेक्स (वीआईएक्स) कहा जाता है, जबकि दूसरे को बीटा के नाम से जाना जाता है।

वौलेटिलिटी इंडेक्स

वौलेटिलिटी इंडेक्स के जरिए आंकी जाने वाली वौलेटिलिटी बाजार के संकेत देती है। अगर बाजार तेजी से उतरने या चढ़ते हैं तो वौलेटिलिटी इंडेक्स भी रफ्तार से बढ़ता है जो निवेशकों के बीच चिंता बढ़ने और बाजारों के साथ जुड़े जोखिमों को रेखांकित करने का काम करता है। जब बाजार सीमित दायरे में कारोबार करते हैं या ऊपर चढ़ने के संकेत मिलते हैं तो बाजार में हिस्सा लेने वाले लोगों का सकारात्मक रुख पुट ऑप्शन की तुलना में कॉल ऑप्शन की खरीदारी बढ़ने के रूप में दिखता है। ये वौलेटिलिटी इंडेक्स को निचले स्तरों पर रखने का काम करता है।

दूसरी ओर अगर बाजार नकारात्मक संकेतों के साथ ट्रेडिंग करता है तो पुट ऑप्शन की खरीदारी बढ़ जाती है और वौलेटिलिटी इंडेक्स ऊपरी स्तरों पर पहुंच जाता है। वौलेटिलिटी इंडेक्स के ऊपरी स्तर पर पहुंचने के मायने जोखिम बढ़ने से है। वौलेटिलिटी इंडेक्स इस बात के संकेत देता है कि ऑप्शन के ऑर्डर बुक के आधार पर छोटी अवधि में इंडेक्स कितना बदल सकता है। निफ्टी 50 ऑप्शन कीमतों पर आधारित इंडिया वीआईएक्स घरेलू बाजारों की वौलेटिलिटी आंकने का काम करता है।

बीटा

वीआईएक्स बड़े पैमाने पर बाजार का खौफ पढ़ने की कोशिश करता है, जबकि बीटा किसी शेयर विशेष में वौलेटिलिटी आंकता है। हर शेयर का बीटा इंडेक्स के मुकाबले उसके भाव में उतार-चढ़ाव की संभावना का संकेत देता है। अगर शेयर का बीटा एक से ज्यादा है तो उसे बाजार से ज्यादा जोखिमपूर्ण माना जाता है और एक से कम है तो वह बाजार की तुलना में कम जोखिम रखता है।

एक से ज्यादा बीटा होने का मतलब यह है कि जिस शेयर पर आपकी निगाह टिकी है उसमें सूचकांक के मुकाबले ज्यादा उथल-पुथल हो सकती है। एक से कम बीटा वाला शेयर, इंडेक्स से कम उठापटक की आशंका रखता है। शेयरों की बीच तुलना के लिए बीटा बढि़या जरिया है। अगर आपके पास कोई ऐसा शेयर है जो बीते एक साल के दौरान 20 फीसदी गिरा है जबकि इंडेक्स ने इसी अवधि में 35 फीसदी नुकसान उठाया है तो इसका यह मतलब हुआ कि शेयर का बीटा इंडेक्स से कम है। बीटा लंबी अवधि में नजरिया बनाने में भी मदद देता है।

दोनों तरफ काम करती है वौलेटिलिटी

यह समझना भी जरूरी है कि वौलेटिलिटी दोनों तरफ काम करती है। मसलन, उभरते हुए बाजारों के शेयरों का बीटा विकसित बाजारों की तुलना में ज्यादा होता है। 18 महीने तक उभरते हुए बाजार अमेरिकी बाजारों की तुलना में ज्यादा चढ़े हैं। बीटा का बुरा पक्ष उस वक्त सामने आया जब अमेरिकी बाजारों में गिरावट का दौर शुरू हुआ। 2009 की शुरुआत में उभरते हुए बाजारों का बीटा 1.75 है। जनवरी 2009 से उभरते हुए बाजारों ने 17 फीसदी की मजबूती देखी है जबकि ज्यादातर अमेरिकी बाजार इंडेक्स छह फीसदी चढ़े हैं।