Wednesday, April 29, 2009

बोनस इश्यू क्या होता है?

जब शेयरधारकों को अपने पास मौजूद शेयरों के एक खास अनुपात में मुफ्त शेयर मिलते हैं, तो उसे बोनस इश्यू कहते हैं। जैसे अगर कोई कंपनी 2:5 का बोनस जारी करती है तो इसका मतलब आपके पास मौजूद हर पांच शेयर पर आपको 2 मुफ्त शेयर मिलेंगे।कंपनिया क्यों जारी करती हैं बोनस इश्यू?:जब कंपनियों के पास नकद रिजर्व बहुत ज्यादा हो जाता है, तो कंपनियां बोनस इश्यू जारी करती हैं। इससे कंपनी डिविडेंड के तौर पर अपने शेयरधारकों को ज्यादा रकम देती है। दूसरे शब्दों में कंपनी के नकद रिजर्व का बड़ा हिस्सा कंपनी के बही-खाते से निकलकर प्रमोटर के निजी खाते में आ जाता है, क्योंकि कंपनी का सबसे बड़ा शेयरधारक अमूमन उसका प्रमोटर ही होता है।
बोनस इश्यू से शेयरधारकों को क्या फायदा होता है?
एक तरह से कुछ भी नहीं। आम धारणा है कि बोनस शेयरधारकों के लिए काफी फायदेमंद होता है, लेकिन अगर कीमत के लिहाज से देखा जाए तो इसका कोई खास फर्क नहीं पड़ता। मान लें कि आपके पास 100 शेयर हैं और कंपनी ने एक पर एक शेयर के बोनस की घोषणा की तो आपके पास कुल शेयरों की संख्या बढ़कर 200 हो गई। इसी तरह अगर बाजार में कंपनी के एक करोड़ शेयर हैं तो उनकी संख्या दो करोड़ हो जाएगी। लेकिन इसी अनुपात में कंपनी की बाजार पूंजी में बढ़त नहीं हो सकती। इसलिए एक्स-बोनस यानी बोनस शेयरों के बाजार में आने के साथ ही सैद्धांतिक रूप से शेयरों के न भाव गिरकर आधे हो जाते हैं, यह अलग बात है कि व्यवहारिक तौर पर भाव बिल्कुल आधे नहीं होते, बल्कि उसी के आस-पास होते हैं।
फिर बोनस की घोषणा के बाद शेयर चढ़ता क्यों है?
इसका कोई ठोस या बुनियादी कारण नहीं बताया जा सकता। एक ओर तो बोनस जारी करने वाली कंपनी के बारे में निवेशकों की यह धारणा बनती है कि कंपनी नकद रिजर्व के मामले में बहुत मजबूत है और दूसरा लाभांश के तौर पर मिलने वाली रकम दोगुनी हो जाती है। इन सबसे कंपनी के शेयरों की मांग बढ़ जाती है।साथ ही बोनस के बाद क्योंकि कंपनी के शेयरों की कीमत उसी अनुपात में कम हो जाती है, तो उनका दैनिक कारोबार भी काफी बढ़ जाता है।
शेयर के फेस वैल्यू पर इसका क्या असर होता है?
बोनस के बाद कंपनी का फेस वैल्यू वही रहता है। दरअसल शेयर विभाजन यानी स्टॉक स्प्लिट और बोनस का मुख्य अंतर यही है कि बोनस में शेयर के दाम तो गिर जाते हैं, लेकिन इसके फेस वैल्यू में कोई बदलाव नहीं होता, दूसरी ओर स्प्लिट में फेस वैल्यू का भाव भी उसी अनुपात में कम हो जाता है।

शेयर गिरवी रखने का क्या मतलब है?

शेयर गिरवी रखने का क्या मतलब है?

प्रमोटरों द्वारा शेयर गिरवी रखने का चलन देश में नया तो नहीं है, लेकिन सत्यम घोटाले के बाद यह चर्चा का गरमागरम मुद्दा बन गया है। आमतौर पर प्रमोटर निजी या कंपनी की जरूरत पूरी करने के लिए कंपनी में अपने शेयर किसी वित्तीय संस्थान के पास गिरवी रखते हैं। गौरतलब है कि ऐसे लोन देने में गैर बैंकिंग वित्तीय संस्थान यानी एनबीएफसी बैंकों से ज्यादा आगे रहते हैं।

प्रमोटर कंपनी के शेयर गिरवी क्यों रखते हैं?

इसकी कई वजह हो सकती है। यह काम व्यक्तिगत कारणों या कारोबार के लिए विस्तार के लिए किया जा सकता है। कभी कभार प्रमोटर वारंट को शेयर में तब्दील करने के लिए अपने शेयर गिरवी रखते हैं। उदाहरण के लिए, हाल ही में केएस ऑयल ने वारंट को शेयर में तब्दील करने के लिए 50 करोड़ रुपए का कर्ज लिया।

हो सकता है कि उसे मंदी के मौजूदा बाजार में शेयरों की खरीदारी का सुनहरा मौका नजर आ रहा हो। ऐसे में खुले बाजार से शेयरों की खरीदारी के वास्ते रकम जुटाने के लिए वे यह रास्ता अपना सकते हैं।

इसकी जानकारी सार्वजनिक करने के क्या नियम हैं?

अमेरिका जैसे विकसित देशों में प्रमोटर ही नहीं कंपनी के निदेशकों को भी शेयर गिरवी रखने की सूचना देनी पड़ती है और ब्रिटेन में यह इनसाइडर ट्रेडिंग संबंधी नियमों के दायरे में आता है। सत्यम घोटाले के बाद पूंजी बाजार नियामक सेबी ने प्रमोटरों और प्रमोटर समूह के लिए सूचीबद्ध कंपनियों के शेयर गिरवी रखने की सूचना सार्वजनिक करना अनिवार्य कर दिया है।

इस नियम के हिसाब से जब कभी शेयर गिरवी रखे जाएं, तब तो इसकी प्रमोटर जानकारी दें ही, साथ ही इसकी सूचना नियमित रूप से भी सार्वजनिक करें। इसके अलावा प्रमोटरों को शेयर गिरवी रखने का ब्योरा उस स्टॉक एक्सचेंज को भी देना होगा जिनमें वह सूचीबद्ध हो।

इसमें प्रमोटरों को क्या जोखिम होता है?

हम पहले ही इस बात का जिक्र कर चुके है, बैंकर या फाइनेंसर शेयर गिरवी रखकर लोन देते हैं। इसलिए जब शेयरों का बाजार भाव गिरकर एक निश्चित स्तर तक आ जाता है, तब प्रमोटर को अतिरिक्त रकम का भुगतान करना होता है। अगर वह ऐसा नहीं कर पाता है तो उसे कुछ और शेयर गिरवी रखना पड़ेगा।

अगर प्रमोटर कुछ भी नहीं कर पाता है तो बैंकर या वित्तीय कंपनी गिरवी रखे गए शेयर बाजार में बेच सकता है। उसे ऐसा करने का पूरा अधिकार होगा। इसके अलावा जिस कंपनी के शेयर गिरवी रखे गए हैं उस पर जबरिया अधिग्रहण का खतरा हमेशा बना रहता है।

इससे कंपनी के निवेशकों के बीच क्या संदेश जाता है?

अगर प्रमोटर ने कंपनी के कारोबार में विस्तार के लिए शेयर गिरवी रखकर बाजार से रकम जुटाई है तो यह निवेशकों के लिए सकारात्मक है। अगर प्रमोटर ने किसी निजी काम के लिए पूंजी जुटाने के मकसद से शेयर गिरवी रखे हैं तो इसका सेंटीमेंट पर नकारात्मक असर होगा। अगर प्रमोटर ने ऐसा कंपनी की कारोबारी स्थिति बेहतर बनाने के लिए किया गया है, तो समझ लीजिए कि कंपनी को लिक्विटिडी की समस्या है।

सामान्य शेयरधारकों और प्रमोटरों के शेयर गिरवी रखने के बीच क्या अंतर है?

बैंक और वित्तीय संस्थान शेयर गिरवी रखकर लोन देते हैं। इस लोन के लिए शेयरधारकों को लेंडर के पास शेयर गिरवी रखना पड़ता है। लेकिन प्रमोटरों से उलट छोटे शेयरधारकों को शेयर गिरवी रखने की बात का खुलासा करने की जरूरत नहीं होती है। निवेशकों को लोन लेने के लिए शेयर के प्रमाणपत्र को बैंक के पास गिरवी रखना पड़ता है।
-आनंद रवानी

ढलती उम्र के लिए नियमित आमदनी का इंतजाम

रिटायरमेंट के बाद की जिंदगी की वित्तीय योजना तैयार करने वालों के लिए फिक्स्ड इनकम उत्पाद और दूसरे डेट इंस्ट्रूमेंट पसंदीदा माने जाते हैं। कुछ लोग महंगाई दर की रफ्तार को पीछे छोड़ने की उम्मीद के साथ आमदनी का छोटा हिस्सा इक्विटी में लगाते हैं। रिटायरमेंट के बाद जब नौकरी नहीं होती तो लोग कम जोखिम और नियमित आमदनी चाहते हैं। लेकिन ऐसे कितने लोग होते हैं जो रिटायरमेंट के लिए की गई बचत से नियमित आमदनी हासिल करने में कामयाब रहते हैं ?

एक स्थिति का अनुमान लगाइए जिसमें एक व्यक्ति पांच साल के लिए 8 फीसदी की मामूली ब्याज दर पर फिक्स्ड डिपॉजिट में अपना पैसा लॉक इन करता है। पांच साल के बाद अगर दरों में गिरावट आती है तो वह नियमित आमदनी खो देगा। औसत आयु में बढ़ोतरी और मेडिकल तथा दूसरे आवश्यक खर्च बढ़ने से रिटायरमेंट के बाद के सालों की जरूरतों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।

आप यह कैसे सुनिश्चित कर सकते हैं कि रिटायरमेंट की जिंदगी में नियमित आमदनी आती रहे ?

पेश हैं कुछ रणनीतियां :

व्यवस्थित रूप से पैसा निकालना

आपका पैसा शेयरों , म्यूचुअल फंड , फिक्स्ड डिपॉजिट और बैंक खाते जैसे अलग - अलग वित्तीय उत्पादों में हो सकता है। अपनी सारी बचत को घर लाना समझदारी नहीं है। केवल वही पैसा निकालिए जिसकी जरूरत आपको तुरंत हो और शेष रकम में इजाफा होने के लिए उसे निवेश में ही रहने दीजिए। रणनीति इतनी पुख्ता होनी चाहिए कि अत्यधिक जरूरत न होने पर पैसा ही न निकाला जाए। कुछ लोग निवेश से होने वाली आमदनी इस्तेमाल करते हैं जबकि उनमें लगाई जाने वाली मूल राशि को नहीं छूते। म्यूचुअल फंड सिस्टेमेटिक विड्रॉल प्लान पेश करते हैं जिसमें निवेशक मासिक या तिमाही जैसी नियमित समयावधि में पैसा निकाल सकता है।



डायवर्सिफिकेशन

रिटायरमेंट संबंधी योजना की कामयाबी डायवर्सिफिकेशन पर निर्भर करती है। अपनी सारी रकम एक ही निवेश उत्पाद में मत लगाइए। शेयर बाजारों में जरूरत से ज्यादा निवेश जोखिमपूर्ण हो सकता है लेकिन यह मुद्रास्फीति दर के खिलाफ ढाल का काम करता है। म्यूचुअल फंड लंबी अवधि में काफी फायदेमंद साबित हो सकते हैं। लेकिन अगर बाजार ढहते हैं तो आपको उस वक्त कड़ी मेहनत की कमाई तक पहुंच नहीं मिलेगी जब आपको उसकी सबसे ज्यादा जरूरत होगी। डेट उत्पाद भी जोखिम से मुक्त नहीं होते। रियल एस्टेट निवेशकों को यह बात बखूबी पता होती है कि संपत्ति बेचकर पैसा जुटाना और उसकी सही कीमत हासिल करना हमेशा आसान नहीं होता। जोखिम सहने की अपनी क्षमता के आधार पर अलग - अलग एसेट श्रेणियों में अपने पोर्टफोलियो का डायवर्सिफिकेशन कीजिए क्योंकि अगर आर्थिक मंदी या किसी बाहरी कारण की वजह से कोई उत्पाद आपकी उम्मीदों के मुताबिक प्रदर्शन नहीं करता तो दूसरे प्रोडक्ट तूफान से आपकी कश्ती बाहर निकाल ले जाएंगे।

लैडरिंग से पहुंचिए मंजिल तक

फर्ज कीजिए कि फिक्स्ड डिपॉजिट पर रिटर्न में गिरावट आ रही है। आप अपना पैसा दूसरे बैंक में ले जाना चाहते हैं जो ऊंची दर पर ब्याज दे रहा है। हो सकता है कि किसी आपात स्थिति से निपटने के लिए आपको फिक्स्ड डिपॉजिट तुड़वाना पड़े। लेकिन फिक्स्ड डिपॉजिट तोड़ने का अपना नुकसान होता है। दरों में उठापटक के प्रतिकूल प्रभाव कम करने , तरलता बढ़ाने और अधिकाधिक रिटर्न हासिल के लिए लैडरिंग नामक रणनीति अपनाई जा सकती है। लैडरिंग से मायने निवेश की ऐसी तकनीक से है जिसमें अलग - अलग मैच्योरिटी तारीख वाले कई वित्तीय उत्पाद आप खरीदते हैं। यह रणनीति हालात सही न होने के वक्त रकम का बड़ा हिस्सा लॉक इन में फंसाने से बचाती है।

इसके तहत व्यक्ति विशेष पैसा लॉक इन करते वक्त अपनी जरूरतों को छोटी अवधि या लंबी अवधि के दो वर्गों में विभाजित कर सकता है। फिक्स्ड डिपॉजिट के तहत समूची रकम लॉक इन करने के बजाय उसके छोटे हिस्से कीजिए और अलग - अलग मैच्योरिटी तारीख वाले विभिन्न डिपॉजिट में पहुंचा दीजिए। अगर आपके पास 50,000 रुपए हैं तो आप सारी रकम पांच साल की फिक्स्ड डिपॉजिट में लॉक मत कीजिए। इसमें से 10,000 रुपए एक साल के डिपॉजिट , अगले 10,000 रुपए 2 साल के फिक्स्ड डिपॉजिट और शेष हिस्सा तीन साल के फिक्स्ड डिपॉजिट में डाला जा सकता है। अंतिम 10,000 रुपए पांच साल के डिपॉजिट में डाले जा सकते हैं। यह रकम नियमित अंतराल पर मैच्योर होगी , ऐसे में तय वक्त से पहले रिडेम्पशन कराने पर नुकसान होने की आशंका भी कम होगी।
-कविता श्रीराम

Monday, April 27, 2009

कम समय के निवेश के लिए लिक्विड फंड बेहतर

अगर आप बहुत कम समय के लिए निवेश पर अच्छा रिटर्न हासिल करना चाहते हैं तो इसका एक विकल्प लिक्विड फंड हो सकता है। लिक्विड फंड कम अवधि के डेट फंड होते हैं जो सर्टिफिकेट ऑफ डिपॉजिट्स, कमर्शियल पेपर और ट्रेजरी बिलों में एक रात, 10 दिन या एक महीने के लिए निवेश करते हैं। आमतौर पर लिक्विड फंड में निवेशक को एंट्री या एग्जिट लोड नहीं चुकाना होता। इन फंडों का इस्तेमाल लघु अवधि में नकदी के निवेश, एक वर्ष से कम समय के लिए निश्चित रकम की आमदनी और आने वाले समय में किए जाने वाले भुगतान के लिए किया जा सकता है। आप अगर भविष्य में कोई बड़ा निवेश करना चाहते हैं और उससे पहले अपनी नकदी को ऐसी जगह रखना चाहते हैं, जहां यह बेकार न बैठी रहे, तो उसके लिए भी ये फंड एक विकल्प हो सकते हैं। इनका इस्तेमाल सिस्टेमेटिक ट्रांसफर प्लान में भी किया जा सकता है। इनकम या बॉन्ड फंड की अवधि लिक्विड फंड के मुकाबले कहीं अधिक होती है और इनमें ज्यादा गिरावट के साथ ही अधिक उछाल आने की संभावना भी रहती है। ये फंड मध्यम से लंबी अवधि के निवेश के लिए बेहतर होते हैं। इनकम फंड कॉरपोरेट बॉन्ड और सरकारी सिक्योरिटीज जैसे लंबी अवधि के साधनों में धन लगाते हैं। बचत खातों में जहां ब्याज की दर चार फीसदी सालाना तक होती है, वहीं लिक्विड फंड का रिटर्न आठ फीसदी प्रतिवर्ष तक जा सकता है। इसके अलावा इन्हें भुनाना भी आसान होता है। निवेशक नेट असेट वैल्यू (एनएवी) पर इन्हें भुना सकते हैं। लिक्विड फंड में न्यूनतम 1,000 रुपए का निवेश किया जा सकता है। हालांकि, कुछ फंडों ने न्यूनतम निवेश की राशि 5,000 रुपए भी रखी है। पिछले पांच सालों में लिक्विड फंडों ने पांच से लेकर नौ फीसदी तक का रिटर्न दिया है। लिक्विड फंड के विकल्प लिक्विड फंड दो प्रकार के होते हैं। एक प्योर लिक्विड फंड और दूसरा लिक्विड प्लस। इन दोनों प्रकार के लिक्विड फंड में मुख्य अंतर उन सिक्योरिटीज की अवधि होती हैं जिसमें ये निवेश करते हैं। लिक्विड प्लस फंड जिन इंस्ट्रूमेंट में निवेश करते हैं उनकी अवधि प्योर लिक्विड फंड के पास मौजूद सिक्योरिटीज से अधिक होती है। कर बाध्यता की बात की जाए तो लिक्विड फंड पर 28.33 फीसदी का डिविडेंड डिस्ट्रीब्यूशन कर चुकाना होता जबकि लिक्विड प्लस फंड में 14.16 फीसदी का कर देना होता है। फिक्स्ड डिपॉजिट (सावधि जमा) में लगभग नौ फीसदी का रिटर्न मिलता है और इस पर लगभग 33 फीसदी आयकर (10 फीसदी सरचार्ज अतिरिक्त) चुकाना होता है। एक वर्ष की मैच्योरिटी वाले लिक्विड फंड के डिविडेंड विकल्प में 28.33 फीसदी का डिविडेंड डिस्ट्रीब्यूशन कर देना होता है। लिक्विड प्लस फंड का निवेश काफी हद तक लिक्विड फंड के समान होता है लेकिन फंड का लगभग 30 फीसदी हिस्सा लंबी मैच्योरिटी अवधि वाले इंस्ट्रूमेंट्स में लगाया जाता है। इसमें मार्क-टू-मार्केट को लेकर कोई बाध्यता नहीं होती और लिक्विड प्लस फंड में कोई लॉक-इन अवधि भी नहीं रहती। कम कर लगने की वजह से भी लिक्विड प्लस फंड को ज्यादा पसंद किया जाता है। लिक्विड फंड पर 28.33 फीसदी के कर के मुकाबले लिक्विड प्लस फंड पर 14.16 फीसदी का कर चुकाना होता है। ये फंड लघु अवधि के लिक्विड फंड और लंबी अवधि के डेट फंड के बीच विकल्प देते हैं। ये उन लोगों के लिए अच्छे हैं जो कम अवधि के निवेश पर अच्छा रिटर्न चाहते हैं। लेकिन निवेशकों फंड द्वारा किए जा रहे निवेश को लेकर सतर्कता बरतनी चाहिए। पिछले वर्ष कुछ फंडों ने ऐसी कंपनियों के पेपर में धन लगाया था जिन्होंने डिफॉल्ट किए थे। इसका खुलासा होने के बाद निवेशकों ने बड़ी संख्या में फंडों को भुनाया था। अगर आप ऊंचे कर स्लैब में आते हैं तो आपके लिए लिक्विड फंड बेहतर रहेंगे क्योंकि इनमें कर कटौती के बाद ज्यादा रिटर्न मिलता है। ज्यादातर लिक्विड फंड कोई एंट्री या एग्जिट लोड नहीं वसूलते। इसके साथ ही इन्हें भुनाना भी आसान होता है। आप एक दिन के अंदर अपना धन वापिस ले सकते हैं।
-आशीष गुप्ता

Sunday, April 26, 2009

दुर्धटनाओं से न डरें, सतर्क रहें निवेशक

कई जानकार कह गए हैं कि कामयाबी का रास्ता कांटों भरा होता है। हालांकि, कांटों का जिक्र करना कुछ ज्यादा नाटकीय होगा लेकिन असल जिंदगी में भी हर चीज मुश्किलों से गुजरे बगैर नहीं मिलती। निवेश के मामले में भी बात कुछ ऐसी ही है। बाजार में अचानक गिरावट आने या इस खौफ के चलते कई लोग बाजार से दूरी बनाए रखने में ही बेहतरी समझते हैं कि अगर चीजों ने सही तरह से आकार नहीं लिया तो क्या होगा। अगर आप इस मानसिकता की तुलना गाड़ी चलाने से करें तो यह कुछ इस तरह होगा कि आप ड्राइविंग से इसलिए इनकार कर रहे हैं कि आपको डर है कि आपकी गाड़ी दुर्घटनाग्रस्त हो सकती है।

अगर गाड़ी दुर्घटनाग्रस्त होती है तो भी क्लेम सेटल करने के लिए बीमा कवर पर निर्भर कर सकते हैं। इसी तरह अगर शेयर बाजार में निवेश करने की प्रक्रिया में कुछ अवरोध पैदा होते हैं तो ऐसी खास प्रक्रिया और संस्थाएं हैं जो आपकी समस्याएं सुलझा सकते हैं। अगर आप इस बात को लेकर परेशान हैं कि कठिनाई सामने आने पर कैसे और किससे संपर्क करें तो अब आपको इंतजार करने की कोई जरूरत नहीं है। इकनॉमिक टाइम्स निवेशकों की कुछ सामान्य समस्याओं पर गौर कर रहा है और इस बात की जानकारी भी दे रहा है कि उनसे निपटने का क्या रास्ते हो सकते हैं...

बेवजह देर

जिन सामान्य दिक्कतों से ज्यादातर निवेशकों को रूबरू होना पड़ता है, उनमें आवंटित शेयरों की रसीद और रिफंड के आदेश मिलने में देर शामिल है। शेयरधारकों को पब्लिक इश्यू बंद होने के 15 दिन के भीतर आवंटित प्रतिभूति या रिफंड के ऑर्डर मिल जाने चाहिए लेकिन कई मामलों में इसमें काफी देर होती है। ऐसी सभी मामलों में शुरुआती कार्रवाई में निवेशक को कंपनी सेक्रेटरी या इश्यू के रजिस्ट्रार से संपर्क साधना चाहिए जिनके पास इन समस्याओं को दूर करने का अधिकार होता है। अगर आप पाते हैं कि कोई कार्रवाई नहीं की जा रही है या दूसरे पक्ष की ओर से हो रही कोशिशों को आप नाकाफी पाते हैं तो आपके सामने दो विकल्प बचते हैं। आप भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) या बम्बई स्टॉक एक्सचेंज की ओर से गठित निवेशक सेवाएं विभाग (डीआईएस) का दरवाजा खटखटा सकते हैं।

हालांकि, कंज्यूमर गाइडेंस सोसइटी ऑफ इंडिया के मानद सचिव एम एस कामत का कहना है कि ऐसे मामलों में यह साबित करने की जिम्मेदारी निवेशक पर है कि दूसरा पक्ष देर कर रहा है। उन्होंने कहा, 'आपको इस मामले से जुड़े सभी दस्तावेज रखने होते हैं। पैसे का भुगतान साबित करने वाली पर्ची, आवेदन पत्र जिसमें आपके आवेदन की तारीख का साफ-साफ उल्लेख हो। इसके अलावा बैंक का ब्योरा और वह तारीख जब आपको रिफंड ऑर्डर मिला है, इसका सबूत भी होना चाहिए।'

बकाया राशि न मिलना

एक और समस्या जिसका आपको सामना करना पड़ सकता है, वह यह है कि कंपनी की ओर से एलान होने के 30 दिनों के भीतर डिविडेंड आसानी से आपके बैंक खाते में नहीं पहुंचता। अगर कंपनी सेक्रेटरी या कंपनी की ओर से इस प्रक्रिया की निगरानी करने के लिए नियुक्त रजिस्ट्रार एंड ट्रांसफर एजेंट (आरटीए) कोई प्रतिक्रिया नहीं देता तो आपको डीआईएस या सेबी के पास जाना चाहिए। हालांकि, इस आवेदन के लिए आपके पास फोलियो नम्बर, सर्टिफिकेट नम्बर, अगर आप शेयरों का कारोबार अब भी कर रहे हैं तो एक खास अंक या ब्योरा या डिपॉजिटरी साझेदार के ब्योरे के साथ डीमैट खाते से जुड़ी जानकारी देनी होगी।

वास्तव में अगर आपकी बात सही साबित होती है तो कंपनी के निदेशक को इस मामले में संलिप्त होने के लिए दंडित किया जा सकता है। मिडास टच इनवेस्टर्स एसोसिएशन के संस्थापक सदस्य और इनवेस्टर हेल्पलाइन प्रोजेक्ट के निदेशक वीरेंद्र जैन ने कहा, 'कंपनी का कोई भी निदेशक अगर जानते-बूझते डिफॉल्ट में शामिल रहा है तो उसे कारावास की सजा हो सकती है जिसकी मियाद तीन साल तक बढ़ाई जा सकती है और उसे डिफॉल्ट होने के समय से 1,000 रुपए प्रतिदिन जुर्माना चुकाना होगा। साथ ही कंपनी को डिफॉल्ट जारी रहने की अवधि के दौरान सालाना 18 फीसदी की दर से ब्याज चुकाना होगा।'

हस्तांतरण से जुड़ी दिक्कत

जो निवेशक शेयरों का हस्तांतरण करते हैं, उन्हें लंबे वक्त तक सर्टिफिकेट ही नहीं मिलते। अगर कंपनी सेक्रेटरी या आरटीए आपको कोई समाधान उपलब्ध नहीं कराता तो आपको डिपॉजिटरी से संपर्क साधने की जरूरत होती है जो कंपनी को सेवाएं मुहैया कराने का जिम्मा संभालता है। हालांकि, जैन ने याद दिलाया कि आपको शेयर ट्रांसफर से जुड़े समझौते की प्रति, हस्तांतरित किए गए शेयर सर्टिफिकेट की प्रति और इस बात के सबूत पेश करने होते हैं कि आपने कंपनी या आरटीए को सभी संबंधित दस्तावेज सौंपे हैं।

हालांकि, उत्तराधिकारी को सौंपने के मामले में आपको इसका सक्सेशन सर्टिफिकेट और एक इनडेमनिटी कम एफिडेविट फॉर्म की जरूरत पड़ती है। याद रखिए कि आपका मामला केवल तभी सही होगा जब आपको आवेदन के शुरुआती पंजीकरण के दो महीने के भीतर सर्टिफिकेट या ट्रांसमिशन सर्टिफिकेशन न मिले हों।

समस्याएं और भी हैं

अगर आपको लगता है कि सावधि जमा या डिबेंचर में निवेश करने से आप ऐसी मुश्किलों से बच सकते हैं तो यह आपका भ्रम है। कई निवेशकों को फिक्स्ड डिपॉजिट और डिबेंचर परिपक्व होने पर भी भुगतान नहीं मिलता। कंपनी सेकेटरी से मिलने के बाद न्यासी से मुलाकात की जा सकती है जिसे सिक्योर्ड डिबेंचर के मामले में नियुक्त किया गया है। इस मामले में कानूनी जरिया उपलब्ध है और कंपनी लॉ बोर्ड को कंपनी को डिपॉजिट का भुगतान करने के निर्देश देने का अधिकार है। कामत ने कहा, 'कई मामलों में कंपनियां इस बात का आवेदन लेकर अपनी जिम्मेदारी पूरी करने से भागती रही हैं कि वे वित्तीय रूप से कमजोर हैं। इस मामले में शेयरधारकों को केवल संपत्तियां भुनाने के वक्त फायदा हो सकता है और प्राथमिकता की सूची में वे अंतिम पायदान पर होते हैं।'

चालबाजों से बचिए

ऐसे भी कई लोग हैं गैर-पंजीकृत ब्रोकरों या सब-ब्रोकरों के चंगुल में फंसकर अपना पैसा गंवा चुके हैं। ऐसे जालसाज आम जनता का पैसा लेकर फरार हो जाते हैं। फर्जीवाड़ों के ऐसे मामले में आपको सेबी को जानकारी देनी होती है जो अदालत में मामला दायर कराने का अधिकार रखता है। हालांकि, अब तक इस तरह के मामलों में सीमित कार्रवाई ही होती देखी गई है। सीयूटीएस सेंटर फॉर कंज्यूमर एक्शन, रिसर्च एंड ट्रेनिंग के प्रोग्राम ऑफिसर दीपक सक्सेना ने कहा, 'काउंटर पार्टी जोखिम से खुद को बचाने के लिए आपको गैर-पंजीकृत मध्यस्थ संस्थाओं से बचना चाहिए। साथ ही अपने ब्रोकर को स्पष्ट दिशानिर्देश दीजिए और ब्रोकर या सब-ब्रोकर को दिए जाने वाले सभी निर्देशों का रिकॉर्ड भी अपने पास रखिए।'

अन्य कठिनाइयां

निवेशकों और शेयर ब्रोकर या डिपॉजिटरी भागीदारों के बीच विवाद समझाने के लिए सेबी के दिशानिर्देशों के आधार पर आर्बिट्रेशन पैनल का गठन किया गया है। सक्सेना ने कहा, 'अगर आप असूचीबद्ध कंपनी के सामने खुद को मुश्किल में फंसा पा रहे हैं या मैन्युफैक्चरिंग कंपनियों में फिक्स्ड डिपॉजिट से संबंधित समस्या का सामना कर रहे हैं या शेयरों की जब्ती या कंपनी की सालाना रिपोर्ट अब तक न मिलने से परेशान हैं तो आपको कंपनी मामलों के मंत्रालय में कंपनियों के संबंधित रजिस्ट्रार से मिलना होगा।'

आसान समाधान

- शिकायत के साथ कंपनी सेक्रेटरी या रजिस्ट्रार और ट्रांसफर एजेंट से संपर्क साधिए

- अगर समस्या न सुलझे तो सेबी या डीआईएस या कॉरपोरेट मामलों के मंत्रालय का दरवाजा खटखटाइए

- मामले से जुड़े सभी दस्तावेजों की प्रतियां साथ रखना न भूलें

- याद रखें कि कंपनी पर उसकी ओर से देर होने पर ही देनदारी बनती है

- जांचिए कि क्या आप कानूनी जरिया अपना सकते हैं
-लीजा मेरी थॉमसन

बड़े लक्ष्य पूरे करने के लिए वित्तीय योजना जरूरी

नई दिल्ली- क्या आपको लगता है कि आप जीवन में अपने वित्तीय लक्ष्यों को हासिल कर पाएंगे? अगर आप अपने मित्रों या रिश्तेदारों से यह प्रश्न
पूछेंगे तो उनमें से ज्यादातर का जवाब हां में होगा। लेकिन अगर आप फाइनेंशियल एडवाइजर्स से बात करेंगे तो वे आपको बताएंगे कि अधिकतर लोगों के लिए अपने वित्तीय लक्ष्यों को पाना मुश्किल है, फिर चाहे वह रिटायरमेंट हो या बच्चों की शिक्षा। इसका कारण है उनके पास सही वित्तीय योजना का अभाव।

सर्टिफाइड फाइनांशियल प्लानर अमित त्रिवेदी का कहना है, 'ज्यादातर लोग बिना सोचे-समझे निवेश करते हैं। कई बार उनके दिमाग में लक्ष्य भी होता है लेकिन वे उसे पूरा करने की दिशा में प्रयास नहीं करते। बहुत से लोग नियमित अंतराल पर अपने निवेश की समीक्षा नहीं करते। अगर उन्हें लक्ष्यों को पूरा करने के लिए अतिरिक्त निवेश की जरूरत होती है तो भी वे उसके लिए कुछ नहीं करते।'

उदाहरण के तौर पर कुछ लोगों के पास प्रॉविडेंट फंड, फिक्स्ड डिपॉजिट और म्यूचुअल फंड में निवेश होता है और उन्हें लगता है कि जीवन के बहुत से लक्ष्यों को पूरा करने के लिए ये निवेश पर्याप्त रहेगा। लेकिन ऐसा नहीं होता। इसका कारण यह है कि उन्हें यह नहीं पता होता कि बच्चों को उच्च शिक्षा के लिए विदेश भेजने में कितना खर्च होगा या उनके पास कितना निवेश होना चाहिए। त्रिवेदी के अनुसार, 'ऐसे लोग मुद्रास्फीति और रिटर्न की दर के वास्तविक आंकड़ों पर ध्यान नहीं देते। उदाहरण के तौर पर पिछले 15 सालों में शिक्षा पर खर्च काफी बढ़ गया है।' यही वजह है कि वित्तीय सलाहकार लक्ष्यों को हासिल करने के लिए एक अच्छी वित्तीय योजना की जरूरत पर जोर देते हैं।

सर्टिफाइड फाइनेंशियल प्लानर गौरव माशरूवाला का कहना है, 'जीवन में हमारे सामने बहुत सी अप्रत्याशित स्थितियां आ सकती हैं। हमें इनके लिए तैयार रहना चाहिए। इसके लिए पहले से योजना बनाने की जरूरत होती है।' उदाहरण के लिए बच्चों की शिक्षा और रिटायरमेंट जैसे लक्ष्यों के लिए अगर योजना नहीं बनाई जाएगी तो इन्हें पूरा करना मुश्किल होगा।

एक वित्तीय सलाहकार ने अपने एक क्लाइंट का उदाहरण देते हुए बताया, 'मेरे पास एक ऐसे व्यक्ति आए जिन्हें रिटायर हुए कुछ महीने ही बीते थे। वह रिटायरमेंट के लिए काफी पहले से बचत कर रहे थे। लेकिन जब हमने उनकी बचत देखी तो पता चला कि उन्हें अपने खर्चे घटाने की जरूरत है। उन्होंने अपने वेतन के एक बड़े हिस्से की बचत की थी लेकिन बचत का निवेश उन्होंने पीपीएफ और फिक्स्ड डिपॉजिट जैसे सुरक्षित विकल्पों में किया था। इस पर उन्हें साधारण रिटर्न मिला और उनका कोष ज्यादा नहीं बढ़ पाया।' इसका कारण एक वित्तीय योजना का न होना था। अगर उन्होंने वास्तविक स्थिति के अनुसार योजना बनाई होती तो उन्हें इस बात का अनुमान रहता कि रिटायरमेंट के लिए उन्हें कितनी रकम की जरूरत होगी। अगर उन्हें लगता कि कि उनकी रिटायरमेंट की बाद की जरूरतों के लिए पर्याप्त नहीं होगी तो वह बेहतर रिटर्न के लिए इक्विटी में निवेश कर सकते थे।

माशरूवाला का मानना है कि वित्तीय योजना कार चलाकर मंजिल तक पहुंचने जैसी है। उनका कहना है, 'जिस तरह कार के चार टायर होते हैं। उसी तरह जीवन में आमदनी, खर्चे, निवेश और दायित्व जैसी चार बातें बहुत महत्वपूर्ण होती हैं। इन सभी में सामंजस्य बिठाना पड़ता है।' त्रिवेदी के मुताबिक सही वित्तीय योजना से आपको जीवन में किसी भी आकस्मिक स्थिति से निपटने में मदद मिलती है। उन्होंने कहा, 'यह कोई भी समस्या हो सकती है। इसका एक उदाहरण मौजूदा आर्थिक संकट है। अगर आपके पास सही योजना मौजूद है तो आप इससे बेहतर तरीके से निपट सकते हैं।'

प्रॉफिट बुकिंग कर मौजूदा तेजी का लाभ उठाएं

मुंबई - निवेशक पिछले काफी समय से चौथी तिमाही के नतीजों का इंतजार कर रहे थे। नतीजों का दौर शुरू हो चुका है और सेंसेक्स पर इसका नकारात्मक असर नहीं पड़ा है। बहुत से लोगों का मानना है कि निवेशकों को चिंता में डालने वाले नकारात्मक समाचार बहुत अधिक नहीं हैं। इसके बावजूद ब्रोकर और एनालिस्ट निवेशकों को सतर्कता बरतने की सलाह दे रहे हैं क्योंकि जमीनी स्तर पर अर्थव्यवस्था की स्थिति अभी उत्साहजनक नहीं है।
आईटी कंपनियों ने भी चौथी तिमाही के नतीजों के साथ गाइडेंस में कहा है कि आगामी दो तिमाहियां चुनौतीपूर्ण रह सकती हैं। इसे देखते हुए बहुत से लोगों को बाजार में तेजी चौंका रही है। मौजूदा रैली के पीछे एक बड़ा कारण विदेशी संस्थागत निवेशकों ( एफआईआई ) की खरीदारी है। तेजी चुनिंदा शेयरों तक ही सिमटी है। छोटे निवेशक अभी भी बाजार से दूर बनाए हुए हैं। इसका एक बड़ा कारण नई सरकार को लेकर राजनीतिक अनिश्चितता भी है। इसके अलावा बाजार में कारोबार का वॉल्यूम कम होना भी उन्हें चिंता में डाल रहा है।

बाजार के मार्च - अप्रैल के दौरान खराब वित्तीय नतीजों की आशंका से गिरने की आशंका जताई जा रही थी लेकिन ऐसा नहीं हुआ और इसके उलट बाजार में प्रत्येक गिरावट के बाद अच्छा उछाल देखा गया है। मौजूदा रैली के बावजूद निवेशकों को संभल कर आगे बढ़ने की जरूरत है क्योंकि गिरावट का एक और बड़ा दौर आने का अनुमान है।

गिरावट के समय के बारे में कोई भी निश्चित नहीं है लेकिन इसके पक्ष में बहुत से कारण नजर आ रहे हैं। लघु अवधि में आम चुनाव के नतीजे और तिमाही प्रदर्शन बाजार को नीचे ला सकते हैं। बहुत से लोग यह दलील दे सकते हैं कि बाजार में इन दोनों कारणों का असर देखा जा चुका है लेकिन आर्थिक रफ्तार धीमी पड़ने का वास्तविक प्रभाव अगली 2-3 तिमाहियों में ही नजर आएगा। इसे देखते हुए निवेशकों के लिए समय - समय पर प्रॉफिट बुकिंग करना अच्छा होगा। शेयरों के दाम नीचे जाने पर वे खरीदारी भी कर सकते हैं।

लंबी अवधि के निवेशकों के लिए कुछ सेक्टरों में अच्छी संभावनाएं दिख रही हैं। लॉर्ज - कैप शेयरों के अलावा मिड - कैप में भी अच्छे अवसर मौजूद हैं। निवेशक पावर , टेक्नोलॉजी और फार्मा में निवेश पर विचार कर सकते हैं। पिछले कुछ सत्रों में कैपिटल गुड्स और बैंकिंग सेक्टर में तेजी दर्ज की गई है और गिरावट आने की स्थिति में इनमें खरीदारी की जा सकती है। इक्विटी जहां निवेश के लिए काफी आकर्षक नजर आ रही है , वहीं बैंकों द्वारा जमा दरें घटाने से डेट की चमक फीकी पड़ी है। इसकी एक बड़ी वजह डेट से धन निकलकर इक्विटी में जाना भी है। बाजार के सूत्रों का कहना है कि भले ही रीटेल सेक्टर की रफ्तार काफी धीमी है लेकिन इसमें निवेश के लिए बहुत से लोग इंतजार कर रहे हैं।

एक बड़े फंड हाउस के सीईओ ने हाल ही में कहा था कि वैश्विक स्तर पर निवेश के लिए धन की कोई कमी नहीं है लेकिन यह नकारात्मक समाचारों का प्रवाह थमने के बाद ही बाजार में आएगा। ऐसा होने पर घरेलू शेयर बाजारों में समय से पहले तेजी का लंबा दौर आ सकता है।
-श्रीकला भाष्यम

Tuesday, April 21, 2009

जोखिम कम करने के लिए बेहतर हैं हेज फंड

हेजिंग का मतलब होता है जोखिम का प्रबंधन करना। फंड प्रबंधक किसी विशेष जोखिम को कम करने के लिए एक विशेष हेजिंग तकनीक अपनाते हैं। उदाहरण के लिए बाजार से जुड़े जोखिम को बहुत सी सिक्योरिटीज को लंबी अवधि में निवेश की मात्रा के समान कम अवधि में बेचकर या फिर सूचकांक पर पुट ऑप्शन के जरिए खरीदारी कर कम किया जा सकता है। आप ब्याज दर, मुद्रास्फीति, मुद्रा के खिलाफ जोखिम कम कर सकते हैं। हेजिंग के तरीकों में नकदी जुटाना, शॉर्ट सेलिंग, आप्शंस, फ्यूचर्स, कमोडिटी और कमोडिटी फ्यूचर्स में खरीदारी या बिक्री शामिल होती है। हेज फंड एक निजी निवेश भागीदारी है। इनमें विशेष रणनीतियों या तकनीकों के आधार पर निवेश कर रिटर्न हासिल करने का प्रयास किया जाता है। हेज फंडों का लक्ष्य बाजार की सभी स्थितियों में अस्थिरता और जोखिम को कम कर पूंजी की सुरक्षा और अच्छा रिटर्न मुहैया कराना होता है। इन फंडों में कॉल ऑप्शंस, पुट ऑप्शंस, शॉट सेलिंग या फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट के इस्तेमाल से एक रणनीति तैयार की जाती है जिससे निवेश से जुड़े जोखिम कम होते हैं। हेज में भविष्य में नुकसान की संभावना के लिए सुरक्षा मिलती है। इन फंडों में बाजार की सभी स्थितियों में सकारात्मक रिटर्न देने की क्षमता होती है। इसके साथ ही हेज फंडों के पास निवेश की विशेष रणनीतियां मौजूद होती हैं। हेज फंड प्रबंधक निवेश पर रिटर्न बढ़ाने के लिए बहुत सी रणनीतियों का इस्तेमाल करते हैं। वे ऐसी कंपनियों की सिक्योरिटीज में लघु और लंबी अवधि का निवेश करते हैं जिनके दाम में किसी अप्रत्याशित घटना की वजह से लघु अवधि में बदलाव आने की उम्मीद होती है। लॉन्ग और शॉर्ट (तेजी और मंदी के सौदे) पोजीशन के मिश्रण से बाजार से जुड़ा जोखिम काफी हद तक कम हो जाता है। निवेश ऐसी सिक्योरिटीज में किया जाता है जिनमें आने वाले समय में अच्छा विकास करने की क्षमता होती है। इन फंडों का पोर्टफोलियो ब्याज दरों, आर्थिक नीतियों और मुद्रास्फीति जैसी बातों को ध्यान में रखकर तैयार किया जाता है। हेज फंडों में निवेश का ऐसा पोर्टफोलियो बनाया जाता है जिसमें जोखिम का स्तर कम हो और रिटर्न का शेयर बाजारों के प्रदर्शन से संबंधित न हो। अगर पिछला रिकॉर्ड देखा जाए तो हेज फंडों ने शेयरों और बॉन्ड बाजार से अधिक रिटर्न दिया है। इनमें निवेश की बहुत सी रणनीतियों का इस्तेमाल किया जाता है और प्रत्येक में जोखिम और रिटर्न का स्तर अलग होता है। एक बड़ा हेज फंड वैश्विक ब्याज दरों और देशों की आर्थिक नीतियों में बड़े बदलाव से लाभ उठाने की उम्मीद के साथ शयरों और बॉन्ड बाजारों के साथ करंसी जैसे निवेश के विकल्पों में भी निवेश करता है। छोटे हेज फंड में अस्थिरता अधिक होती है, लेकिन इसमें मुनाफे की संभावना भी ज्यादा रहती है। इक्विटी हेज फंड वैश्विक या किसी विशेष देश पर आधारित हो सकता है।
-आशीष गुप्ता

बाजार गिरे तो लगाएं दांव

बीते करीब एक साल से बाजार में मंदड़ियों की तूती बोल रही थी लेकिन पिछले कुछ सप्ताहों में सूचकांक में कुछ जान पड़ती दिखी है। इस रैली के दौरान बाजार के महत्वपूर्ण इंडेक्स करीब 35 फीसदी मजबूत हुए हैं। बाजार की मौजूदा तेजी का रूप काफी व्यापक था और मंदी में खासे पिटे शेयरों और सेक्टरों में बढ़िया उछाल देखने को मिला। खास तौर से बैंकिंग और रियल एस्टेट से ताल्लुक रखने वाले शेयरों में कुछ जान पड़ी। इक्विटी बाजारों में इस तेजी के कारण स्थिरता और वैश्विक बाजारों की रिकवरी के शुरुआती संकेत रहे हैं। विश्लेषकों का मानना है कि अगर वैश्विक अर्थव्यवस्था की हालत में सुधार आता है तो उभरते हुए बाजार ज्यादा रफ्तार से बेहतरी की ओर बढ़ेंगे। ऐसा मुख्य रूप से विकसित बाजारों की तुलना में उभरते हुए बाजारों में ज्यादा बीटा फैक्टर की वजह से है।
निवेशकों को बाजार में पैसा लगाते वक्त इन चीजों पर ध्यान देना चाहिए:
रैली
बाजारों ने बीते कुछ कारोबारी सत्रों के दौरान तेजी दिखाई है और बाजार में जिस तरह की भावना बनती दिख रही है, उसे देखते हुए यह कहा जा सकता है आने वाले दिनों में कुछ मजबूती दर्ज की जा सकती है। वैश्विक बाजार में हालात निर्णायक रूप से नहीं बदले हैं। बाजार की मौजूदा तेजी कुछ शुरुआती संकेतों और विश्लेषकों तथा कंपनियों की ओर से सकारात्मक टिप्पणियों पर आधारित है।
जोखिम सहने की क्षमता
निवेशकों को सतर्कता का रुख दिखाना चाहिए और बेहतर यही रहेगा कि निवेशक इक्विटी में जोखिम के दायरे में आने वाली रकम का एक अंश लगाएं। बाजारों में निवेश करने वालों को वैश्विक खबरों और घटनाक्रमों पर लगातार निगाह रखनी होगी। मध्यम से लंबी अवधि में वैश्विक मार्केट के घटनाक्रम काफी हद तक घरेलू बाजारों की चाल तय करेंगे।
बिकवाली का डर
घरेलू बाजारों में इन दिनों उत्साह देखा जा रहा है और बुरी खबरों को पचाने या नजरअंदाज करने का चलन भी। हालांकि इस बात का अंदाजा लगाना मुश्किल है कि कौन सी चीज बाजारों की रौनक छीन सकती है। कभी-कभार छोटी नकारात्मक खबरों से बाजारों में बड़े पैमाने पर बिकवाली शुरू हो जाती है। बाजार में जानकारों की कई टिप्पणियां और विचार उपलब्ध हैं लेकिन निवेशकों के लिए होमवर्क करना उतना ही महत्वपूर्ण है।
निवेश में बने रहने के लिए कुछ टिप्स:
आंशिक मुनाफा वसूली बाजार काफी छोटी अवधि में ऊपर चढ़े हैं। मामूली इंट्रा डे गिरावट तो आई हैं लेकिन बाजार अभी नीचे आ सकता है। घरेलू या वैश्विक मोर्चे पर कुछ बुरी खबरें सेंसेक्स को नीचे लाने का काम कर सकती हैं। बाजार इन दिनों चढ़ाई के मूड में है, इसलिए उच्चतम स्तर का अंदाजा लगाना लगभग नामुमकिन है। कारोबारी साल 2009 के सालाना नतीजे और आम चुनावों की वजह से बाजार छोटी अवधि में उथल-पुथल देख सकते हैं। निवेशकों को ब्लूचिप कंपनियों में निचले स्तरों पर निवेश की सलाह दी जाती है। साथ ही आंशिक मुनाफा वसूली और शेष पोजिशन बरकरार रखने का सुझाव दिया जा रहा है।
चरणबद्ध ढंग से निकलें बाहर
जिन निवेशकों ने 2007 में बाजार की तेजी के दौरान सुर्खियों से दूर रहने वाले मिड कैप और स्मॉल कैप शेयरों में निवेश किया था, उनसे चरणबद्ध तरीके से बाहर निकलना बेहतर है। सिलसिलेवार तरीके से बाहर निकलने से आप बेहतर दाम हासिल कर सकते हैं। बीते कुछ सप्ताहों में मिड कैप और स्मॉल कैप शेयरों में ठीक-ठाक उछाल देखा गया है।
-विकास अग्रवाल

शेयर बाजार में निवेश के लिए जानकारी को बनाइए ताकत

सीईओ, यूनिकॉन फाइनेंशियल इंटरमीडियरी जबेंजामिन फ्रैंकलिन का कहना था, 'जानकारी के साथ किया गया निवेश हमेशा अच्छा फायदा देता है।' यह बात सालों पहले कही गई थी लेकिन आज भी पूरी तरह सही बैठती है। बहुत से ऐसे छोटे निवेशक आपको मिल जाएंगे जो बिना पुख्ता जानकारी के निवेश के फैसले लेते हैं।
जानकारी के अभाव में वे सट्टेबाजों की तरह काम करने लगते हैं और अफवाहों या पुरानी जानकारी के आधार पर निवेश करते हैं। छोटे निवेशक अर्थव्यवस्था के बारे में उपलब्ध आंकड़ों और मीडिया में प्रकाशित कुछ एनालिसिस को ही जानकारी मान लेते हैं। इसके अलावा अपने भरोसेमंद सूत्रों से मिली सलाह का इस्तेमाल भी वे निवेश के फैसलों के लिए करते हैं। वे कंपनी से जुड़े बहुत से मानकों को भुला देते हैं। इनमें निरंतर लाभ कमाना, उत्पादन का स्तर, भविष्य की योजनाएं, रिजर्व, मौजूदा बिक्री, पीई रेशियो और डिविडेंड रेशियो शामिल होते हैं।
यह जानकारी भी आसानी से उपलब्ध होती है लेकिन छोटे निवेशक इससे भ्रमित हो जाते हैं और ऐसी सलाह पर चलने लगते हैं जिसे मैं 'बेकार सलाह' कहता हूं। भारतीय निवेशकों के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि वे मुफ्त की सलाहों के आदी होते हैं और इनकी वजह से अक्सर नुकसान उठाते हैं। निवेशकों को ऐसी सलाहों से बचना चाहिए। बाजार की जानकारी रखने वाले प्रोफेशनल के टिप्स पर ही निवेश करना बेहतर रहता है। अगर इसके लिए आपको कुछ फीस भी चुकानी पड़े तो भी यह खराब सौदा नहीं होगा क्योंकि अंत में फायदा आपका ही होना है। छोटे निवेशकों के साथ एक और बड़ा मुद्दा भेड़चाल की मानसिकता होती है। वे अपने विश्वास के भरोसे नहीं बल्कि दूसरों को देखकर निवेश करना पसंद करते हैं। मंदी के दौर में वे बाजार से दूरी बना लेते हैं और तेजी जब अपने चरम पर होती है तो इसमें कूद पड़ते हैं। इससे वे कम दाम पर शेयर खरीदने का मौका गंवा देते हैं और जब अन्य लोग मुनाफा वसूली के लिए बिकवाली करते हैं तो उनके पास शेयरों को रखने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता। मुनाफा कमाने के लिए हमें शेयर बाजार में विपरीत निवेश का तरीका अपनाना चाहिए।
उदाहरण के तौर पर इस समय बाजार में बहुत से ऐसे शेयर हैं जिनका भविष्य काफी अच्छा है। ये शेयर उन्हीं निवेशकों के लिए हैं जो कोयले के दाम पर उपलब्ध इन हीरों की पहचान कर सके। भारतीय निवेशक बाजार की शक्तियों पर निर्भर होते हैं। वे उस समय डूबने लगते हैं जब धारा उनके विपरीत बहती है और उस समय तैरने का प्रयास करते हैं जब लहर में बहकर हीरे किनारे पर आते हैं। भविष्य में तेजी के दौर का लाभ उठाने के लिए निवेशकों को पहले से ही तैयार रहना होगा। यह बदलाव तभी होगा जब आज के निवेशक विभिन्न जरियों से आने वाली जानकारी की समीक्षा कर उसका सही इस्तेमाल करेंगे।
अगली बार बाजार में मुनाफे की बयार बहने तक देश के अर्द्ध शहरी और ग्रामीण इलाकों के लाखों ऐसे निवेशक बाजार में मौजूद होंगे जिनके पास निवेश के लिए रकम मौजूद है लेकिन वे अभी तक बाजार से अनजान हैं। अगर जानकारी के आधार पर निवेश किया जाएगा तो तेजी का दौर ज्यादा मजबूत और लंबा होगा। निवेशकों को जागरूक करने में वित्तीय संस्थानों, नियामक और मीडिया को महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी।
मौजूदा दौर में निवेशकों की कम जानकारी का लाभ उठाकर एजेंट उन्हें ऐसे प्रोडक्ट बेचने में सफल रहते हैं जो उनकी जरूरतों को पूरा नहीं करता। मेरे हिसाब से यह ऐसी स्थिति है जिसमें निवेशक उस मरीज के समान है जिसे इलाज की जानकारी नहीं है और वित्तीय सलाहकार डॉक्टर के रूप में सही जानकारी देने के बजाए एक केमिस्ट की भूमिका निभा रहा है। निवेशकों के लिए एक बड़ी सलाह यह है कि वे शेयरों के साथ भावनात्मक लगाव न रखें। ऐसे शेयरों से दूर रहें जिनमें काफी उतार-चढ़ाव होता है। अपने लंबी अवधि के लक्ष्यों के अनुसार रणनीति मेंबदलाव करें।
शुरुआत में निवेशकों को बाजार में निवेश के सही समय का आभास नहीं होता लेकिन वे अपनी जानकारी और बुद्धि के अनुसार बाजार से निकलने का समय तय कर सकते हैं। इसके अलावा यह भी ध्यान रखें कि उसी रकम का निवेश करें जिसे लेकर आप जोखिम उठा सकते हैं।
-गजेन्द्र नागपाल

Sunday, April 19, 2009

1,00,000 पॉइंट के पार जाएगा सेंसेक्स: एजेंसी

नई दिल्ली: शेयर बाजारों की खराब हालत के बीच यह सुनकर आपको थोड़ी हैरत हो सकती है, पर एक अमेरिकी रिचर्स ग्रुप को ऐसा संभव लगता है। इस रिसर्च ग्रुप ने कहा है कि अगले 15 साल के भीतर सेंसेक्स 1 लाख पॉइंट को पार कर जाएगा। इसका मतलब यह है कि सेंसेक्स हाल ही के अपने 10 हजार के लेवल का 10 गुना हो जाएगा।

इलियट वेव इंटरनैशनल नाम की इस एजेंसी का मानना है कि हाल ही में शेयर बाजारों में फिर से पैदा हुई तेजी अब बुल रन का संकेत है और यह अगले 15 साल तक जारी रहेगी। यह एजेंसी स्टॉक मूमवेंट्स के टेक्निकल चार्ट आदि का विश्लेषण करती है।

गौरतलब है कि 10 जनवरी 2008 को 21000 का का अपना सबसे ऊंचा लेवल तक कर चुका सेंसेक्स फिलहाल इसके आधे लेवल यानी 11000 के आसपास है। पर इस साल 9 मार्च के बाद से लेकर अब तक सेंसेक्स में करीब 30 परसेंट या 2500 पॉइंट्स की तेजी आ चुकी है।

क्या करें शेयर बाजार में पहली बार घुसने से पहले?


पिछले कुछ महीनों में शेयर बाजारों की हालत काफी खराब हुई है। पर जानकारों की राय है कि यदि देश की विकास दर लगातार 8 परसेंट के आसपास बनी रही तो पूंजी बाजारों की हालत में सुधार होना तय है और पूंजी बाजार निवेश और अच्छे रिटर्न का बेहतर जरिया साबित हो सकता है।पर बाजार जिस हिसाब से हिचकोले खा रहा है उसे देखने हुए यहां पहली बार कदम रखने से पहले इन बातों को गांठ बांध लेना जरूरी है...


लॉन्ग टर्म की सोचें:

यदि आपने नए खिलाड़ी के तौर पर शेयर बाजार में कदम रखा है इस बात को गांठ बांध लीजिए कि इक्विटी मार्केट में लॉन्ग टर्म का निवेश ही ज्यादातर मामले में फायदेमंद होता है। लिहाजा आप बाजार में वैसे ही पैसे लगाएं जिनकी जरूरत आपको अगले कम से कम 5 साल के लिए न हो। एक साल या उससे कम वक्त के लिए पैसे लगाने पर नुकसान का खतरा तो रहता ही है, आपको टैक्स बेनिफिट भी नहीं मिल पाएगा। यदि आप एक साल से ज्यादा के लिए निवेश करते हैं तो इससे होने वाली कमाई को कैपिटल गेन नहीं माना जाएगा। बाजार में उतना ही पैसा लगाएं, जिसके पूरी तरह डूब जाने पर भी आपकी आर्थिक सेहत पर बहुत फर्क नहीं पड़ता हो।


स्टडी करके ही निवेश करें:

टिप्स पर आंख मूंदकर भरोसा करके कभी निवेश मत करें। जिन शेयरों और म्यूचुअल फंड्स में आपकी दिलचस्पी है, पहले उसके बारे में पूरी जानकारी हासिल करें। किसी स्टॉक के अब तक का बेहतर प्रदर्शन उसके भविष्य में भी अच्छे प्रदर्शन की गारंटी नहीं है। इसी तरह किसी स्टॉक का खराब प्रदर्शन उसके भविष्य में भी खराब प्रदर्शन का सूचक नहीं है।


डायरेक्ट या इनडायरेक्ट:

निवेशकों के मन में एक सवाल जरूर कौंधता है कि क्या बाजार में डायरेक्ट एंट्री की जाए या इनडायरेक्ट? इसका जवाब बहुत साफ है। वह यह कि यदि आपके पास समय की कमी है या फिर आप बाजार की बारीकियों को सही से नहीं समझ पाते हैं तो आप डायरेक्ट एंट्री ना करें। आप किसी एक्सपर्ट को हायर करें और फिर उसके जरिये निवेश करें। या फिर म्यूचुअल फंड में निवेश का रास्ता चुनें, जहां एक्सपर्ट आपके द्वारा बताए गए मानकों के आधार पर आपके पैसे को कैपिटल मार्केट में लगाते हैं।


SIP रूट:

स्टॉक मार्केट में निवेश के लिए सिस्टमेटिक इनवेस्टमेंट प्लान एक बेहतर विकल्प है। बाजार की उठापटक का कम नुकसान होने का खतरा इसमें रहता है।


इंडेक्स फंड:

बढ़ते बाजार में बड़ी कंपनियों के शेयरों में सबसे ज्यादा बढ़त देखने को मिलती है। निफ्टी और सेंसेक्स इंडेक्स में इन कंपनियों के शेयर शामिल हैं। लिहाजा निवेशकों को इंडेक्स फंड में दिलचस्पी दिखानी चाहिए।


इक्विटी लिंक्ड सेविंग स्कीम (ELSS):

इक्विटी में निवेश के जरिये टैक्स बेनिफिट उठाने की इच्छा रखने वालों के लिए ईएलएसएस बेहतर विकल्प है। फ्रैंकलिन टेम्पल्टन इंडेक्स टैक्स आपको इंडेक्स में निवेश और टैक्स छूट का फायदा उठाने दोनों का मौका देते हैं।




Saturday, April 18, 2009

Can predictions make you rich?

The surest way in theory to become rich is to know tomorrow’s stock prices today. Moment we master the art and science of understanding market trends and harness our skills of accurately predicting the trends we will start rolling in wealth.

Once we acquire the skill, only thing we need to do is purchase stocks when they are going to be at its bottom and sell them at peak. If we keep repeating this again and again and again, we shall accumulate infinite wealth.

There are several things we can do to acquire this knowledge. To begin with we can purchase books on the subject. Bookstore shelves are full of titles on “how to beat stock market.”

Next consider going to individuals who draw lines. They can create logic and sense from any kind of chaos.

Another option is to speak to our friends, neighbors, colleagues who have ‘immense’ foresight about stocks. It is a known fact that once they predict something, even stock market will change its course and follow their prediction.

Lastly go to an astrologer. There is no better person than an astrologer who can predict future. There are varieties of astrologers. There are palmists. Then we have crystal ball glazers. We also have parrots that pick up cards and predict future.

Now obviously not everyone will be able to master this art of predicting future stock prices. However even if you cannot master the art do not lose heart. If you are unable to acquire the predicting skills follow the advice of legendary investors who have created ‘massive’ wealth for themselves.

Some of the well known investors and economists have said the following….

We've long felt that the only value of stock forecasters is to make fortune tellers look good - Warren Buffett

I never ask if the market is going to go up or down next month, I know that there is nobody that can tell me that. - Sir John Templeton

I don't know anyone who's ever got market timing right. In fact, I don't know anyone who knows anyone who's ever got it right. - John Bogle

There are two sorts of forecasters. Those who don't know, and those that don't know they don't know. - John Kenneth Galbraith

If I have noticed anything over these 60 years on Wall Street, it is that people do not succeed in forecasting what`s going to happen to the stock market. - Benjamin Graham

So, choice is yours. Either follow the legendary investors who created immense wealth for themselves and their investors. Alternatively follow those who by predicating future prices have not been able to create good future for themselves also.

By the way until today nobody has got Nobel Prize in economics for a theory on “predicting tomorrow’s stock prices today.”

- Gaurav Mashruwala

What should be your investment strategy now?

Financial Year 2008-2009 has been one of the roughest years not just for Corporate India but also for small businesses, individuals and families.

As one enters the new financial year, the key questions in every person’s mind are “Where are we headed? Is our business or job secure? Where do we park our money and more importantly what should be our strategy now?”

Equity markets have their own way of surprising everyone. The rhetoric of gloom and doom was so strong that everyone took for granted that the only way the markets could go was down. Once again, the uncertainty (though on the upside now) witnessed in the last 3 weeks has been unprecedented. The Sensex has once again kissed 11000 but no one knows where the market will head two months down the line.

There is still no improvement in the global economic scenario however there are several measures that have been taken by governments and central banks around the world with the latest being the $ 1 trillion infusion as emergency aid. The scenario today is far different than what has been in the past and looking at history to provide answers might not help at all. Nobody has any clue where we will land up 6-8 months down the line.

Our own markets have been plagued with several problems right from corporate governance issues to the upcoming general elections. BJP or Congress coming to power could be a non event or even a positive trigger for the markets however the formation of a third front could mean pain for the stock markets. FIIs seem to have started buying as is evident by the purchases in the last several days. Mutual Funds and high net worth investors are still sitting on piles of cash that could enter the market once the indices move further by another 10-15%.

At the same time, there are very few buyers of Real Estate and banks have been cautious in disbursing loans. Gold which touched a high of 15700+ is currently down to around 14700 with few takers. On the debt side, interest rates on Fixed Deposits are down and bond markets have become extremely volatile.

So what should your financial strategy be today?

The first step that one must do is to understand one’s financial goals. Ask yourself “What are my short (0-2), mid(2-5) and long term financial goals(5-25 years)? Is my income stable or is there a chance of a job loss or slowdown in business?” Once you have a solid understanding of these areas, the next step is to figure out where you are today and the third step would then be to allocate assets prudently in line with your goals and personal situation. The actions will vary from person to person but here are some general guidelines on what you could do today.

Equity:
There is no way you can time the bottom or invest at the bottom and hence the best strategy is to invest in a staggered manner every month. Wait for sharp corrections to invest lump sum amounts but continue or start off monthly equity investments. A lot of money is actually lost waiting for corrections and when the correction happens, waiting for further correction to happen. Yes there will be days when the sky will look like its falling but that’s how equity markets actually behave. Before you do equity investments, understand your actual tolerance to risk and not what you think is your tolerance to risk. This is easier said than done because it is only when the rubber meets the road do you come to know your actual tolerance.

Gold:
In an era of a weak dollar, Gold will shine and could go much higher from current levels. However if you have bought gold long time back, Rs. 14800-15700 is a great price to partially book profits or get back into cash. There have been noises of gold reaching 20000 levels. However the potential upside from current levels can only be sizeable if gold is bought at much lower levels. A good price to enter gold can be around 11000-12000. Over the next 2-3 years gold could shine but book profits regularly and this is certainly a time to do so.

Real Estate:
Recently we read a column about some increase in real estate sales. The ground reality is that things are getting from bad to worse. There are still very few transactions happening barring a few instances where prices have been slashed down sharply. Banks are offering innovative interest rate schemes though they have not reduced interest rates sharply. October to December period could see a further 20-25% correction in prices and interest rates going back to around 8%. You might well be able to afford a bigger house if you are prudent enough to ignore the noise of last few flats or the best time to buy real estate.

Contingency Funds:
Keep sufficient contingency funds in Fixed Deposits, Short Term Income Funds and Floating Rate Income Funds. Make sure that you do not pile up too much of loans just because it is going to get cheaper. Your repayment ability is far more important and in an uncertain economic environment, it’s always better to be low on liabilities (Debt Diet).

Finally it’s not how much you earn but how much you keep that’s important. Aim to save far more today than you would in good times. Savings done in these times can ensure that you sail through future financial storms comfortably.

-Amar Pandit

Friday, April 17, 2009

Smart ways to be financially aware




Smart ways to be financially aware
Everyone today is obsessed with fitness: physical and mental. However, there is another type of fitness which is equally important -- financial fitness.

When we talk about financial awareness or financial education what are we actually talking about?

Financial education can be defined as the process by which financial consumers/investors improve their understanding of financial products, concepts and risks and, through information, instruction and/or objective advice, develop the skills and confidence to become more aware of financial risks and opportunities, to make informed choices, to know where to go for help and to take other effective actions to improve their financial well-being.

Understand your current situation

For this, you have to take a very close look at how you are performing financially. You would need to look at some hard truths.

It is important that you understand the inflow and outflow of your finances. You have to check whether your outflow is more than your inflow and if the answer is yes, you have to ask yourself why?

Look at your debts, liabilities and investments. Look at debts and see whether you can clear them with a loan. For example, if you have high credit card debts, try paying them off by taking a loan.

If you are already paying for a loan, look at closing the loan by taking another one at a lower interest.

If you have made investments, look at how your investments are performing and whether you can do anything to make them better. Maybe, making changes in your investment portfolio can improve your returns.

A good investment is an investment that can make a good amount of money for you, when compared to other investments that have the same amount of risk associated with them.

A bad investment is an investment that will cause you to loose money, or make a lot less money, when compared to other investments, that have the same amount of risk associated with them.

Therefore, the key to understanding the difference between good and bad investments is researching.

Be constantly vigilant of the changes which are happening within the gamut of investments and avail the help of a financial advisor if need be.

Once you are aware of your investment options, start planning your investments and how mush you will put into that investment.

Plan, plan and then . . . plan a little more

Once you are aware of your financial status, look at the situation in a way you would look at a soiled cloth. No matter how much dirt is present, washing the cloth will atleast fade the marks if not completely remove it.

In the same way, you can at least improve your situation if not become completely burden free.

To achieve this, you need to plan your spending and creating a budget would definitely help you in that. Also, as you do not leave on a road trip without a map, do no make your plans without setting robust and practical financial goals.

For example, you can create a table with two headings, 'Wants' and 'Needs'. List all the things that you have purchased in a month under these headings.

Take a honest look at the table once you are finished and then see whether any of your 'needs' are actually just 'wants'.

Once you have done that, from the next month onwards avoid purchasing any of your wants till the time you are not absolutely sure that you can afford the cost.

Once you have taken care of this you can then, look at saving as much as possible in a month.

The keyword is 'Invest'

Don't let the money that you save lie around in your bank account. Keep a certain amount for an emergency and invest the rest in the best options for investment.

You have to educate yourself about the options available. Try to increase your investments steadily every month. Also, invest the money you'll need soon in very liquid investments such as short-term fixed deposits and such, but when investing for the long-term, invest as much in stocks and equity mutual funds as you can.

Don't buy an investment without analyzing it carefully. Options, futures, and start-up ventures are all gambles. You may want to take an occasional fling on such investments, but do so with money you can afford to lose.

A word of caution. Your investment decisions won't be right all the time, and some of your funds will underperform your expectations. But as you weed out consistent underperformers over the years, you will generally achieve a reasonable and stable investment portfolio.

Finally, put time on your side. If you have ambitious financial goals, one of the best moves you can make is to start saving as soon as possible.

How Section 80C helps you save tax


How Section 80C helps you save tax

The financial year of 2008-09 has just closed and all of us have gone through the regime of filing taxes - something we all loathe to do.

Come March and we all make one last desperate attempt to find avenues for investments that will help us save some tax.

Frankly speaking, saving tax is not all that difficult. A systematic investment plan, may not make your income 'zero tax', but will definitely help you lighten your tax liability.

While there are several provisions, the most common option is the tax deduction instruments under Section 80C of the Income Tax Act.

And, the most popular among these contributions/investments are the Employee Provident Fund (EPF) and the Public Provident Fund (PPF).

Besides, there are some more investment instruments, which can be divided into tax saving investments and miscellaneous investments or more aptly put, payments that you inadvertently have to make, which provide you with tax benefits.

So what are the investments that fall under Section 80C?

Tax saving investments



Public Provident Fund (PPF)
Return - 8% pa,
Tenure - 15 years,
Minimum investment - Rs 500,
Maximum investment - Rs 70, 000.
Assured but not fixed returns since interest rates change as per government rules from time to time, amount invested can be deducted from taxable income.


Employee Provident Fund (EPF)
Employer and employee contribute 12% of annual income.
Out of the total 24% contribution, 8.33% is given towards a family pension plan.
The remaining portion (15.67%) grows at a rate of 9.5% per annum.
Amount invested can be deducted from taxable income.

Equity Linked Savings Schemes (ELSS)
Tenure - 3 years,
No upper limit of investment,
High earning potential,
Provides 10% to 15% returns with a good scheme, over a long term.


National Savings Certificate (NSC)
Return - 8% compounded half-yearly,
Tenure - 6 years,
Minimum investment - Rs 500,
No maximum investment limit,

Amount invested can be deducted from taxable income.


5-year fixed deposits with a bank or post office
Return - Currently between 5% and 9% depending on tenure.
Tenure should be up to a maximum of 5 years to avail tax benefits.
Amount invested can be deducted from taxable income.

Insurance and Pension Scheme



Senior Citizen Saving Schemes
Investments can be made by opening an account in a post office.
Investments need to be in multiples of Rs 1, 000 and should not exceed Rs 15 lakh.
Tenure - 5 years and can extend to 3 years,
Returns - around 7%-9% p.a.
Tax benefits only if form 15G or 15H is submitted.


Unit Linked Insurance Plans (ULIPs)
Mutual funds with an insurance component, returns depend on scheme, qualify for tax deductions irrespective of plan

Life Insurance Schemes
Returns depend on schemes, and life insurance premium payments are tax deductible


Mutual Fund Pension Plans
Returns depend on schemes and amount invested can be deducted from taxable income

Accrued interest on National Saving Certificate
Interest accrued on NSC investments provide tax benefits

Tuition fees paid for children's education (maximum 2 children)
The amount paid for the school or tuition fees can be deducted from your taxable amount

Principal component of home loan repayment
The maximum amount of home loan principal repayment eligible for deduction u/s 80C is up to Rs 100,000.

Now that you know where you can invest to obtain Section 80C benefits, you can research about each type of investment option and make your choice based on ease of liquidity, tenure, returns and tax benefits.

However, if you are planning to put all your eggs in one basket, here is abit of bad news -- Section 80C has a limit of Rs 100,000.

That is, if you have made investments of Rs 150,000 in any of the investment instruments mentioned above, only Rs 1 00,000 out of it would be eligible for deduction under Section 80C.

Also, if you are a salaried individual, the PF contributions from your company are also included in this limit. Therefore, it does not make sense to invest more than Rs 100,000 under these categories.

Another important thing that you need to keep is mind is about investing in PPF. At present, PPF investments yield a return of 8 per cent per year. However, it should be noted that the returns are assured but not fixed.

This is because the rate of return is subject to revision i.e. it can be revised upwards or downwards thereby impacting the returns.

Also, apart from Section 80C tax benefits on the amount invested, interest income from PPF investments is exempt from tax under Section 10(11) of the Income Tax Act.

Even though it is not a favoured investment instrument among individuals who are more concerned with the liquidity of their investments because of its tenure running through 15 years, PPF can be an ideal investment in case you are looking to build a corpus for long-term needs like retirement and children?s education.

There is a need for salaried individuals to devote adequate time and effort to tax planning exercise and be aware of the various benefits that they can avail of.

Starting early in terms of researching about the different investment avenues and choosing wisely from the gamut of investments available is very important ? else you end up paying higher tax.

Tuesday, April 14, 2009

निवेश के लिए कैसे चुनें सही डेट का विकल्प

यूं तो डेट हमेशा से निवेशकों के लिए प्रासंगिक रहा है, लेकिन बीते एक साल में उसके प्रदर्शन ने कई लोगों को अपनी ओर खींचा है। पिछले 12-14 महीने में इक्विटी के हल्के प्रदर्शन ने डेट को और मजबूत बनाया है क्योंकि शेयर बाजारों की कमजोरी ने बीते कुछ वर्षों के बेहतरीन प्रदर्शन को एक झटके में बेकार साबित कर दिया है। डेट पूंजी की सुरक्षा और तय रिटर्न की सहूलियत देता है, लेकिन वास्तविक अर्थों में सभी डेट विकल्प सुरक्षित नहीं होते। अगर उत्पाद का चयन गलत हो जाए तो डेट आपकी जेब को नुकसान पहुंचा सकता है। इसलिए सही डेट उत्पाद का चुनाव करना सही शेयर का चयन करने की तरह होता है और कई मामलों में इससे भी ज्यादा मुश्किल होता है। दिलचस्प है कि कई लोगों के लिए चुनने के बजाय यह चुनौती बन जाता है कि डेट में कब रकम आवंटित की जानी चाहिए। इक्विटी का बुरा प्रदर्शन यूं तो सभी को डेट की राह पकड़ने पर मजबूर कर देता है, लेकिन जब निवेशक संपत्ति आवंटन की ओर बढ़ता है तो जरूरी नहीं कि ऐसा ही हो। अगर आप फाइनेंशियल प्लानिंग के सिद्धांतों के मुताबिक चलें तो देखेंगे कि निवेशकों की सभी श्रेणियों के लिए डेट अभिन्न हिस्सा होता है हालांकि इसके आवंटन का प्रतिशत निवेशक की उम्र और जरूरतों के हिसाब से अलग-अलग हो सकता है। मसलन, आमदनी के सीमित स्त्रोत रखने वाले कुछ युवा निवेशक ऐसे होते हैं जिन्हें मासिक या सालाना आधार पर वित्तीय प्रतिबद्धताएं पूरी करनी होती हैं। वे उम्र के मोर्चे पर बेहतर स्थिति में होने के बावजूद इक्विटी में पैसा लगाने की आजादी नहीं रखते। ज्यादातर निवेशकों के लिए मुनाफे और पूंजी की सुरक्षा तथा एसेट आवंटन जैसे कारणों के चलते डेट आवश्यक बन जाता है। ऐसे निवेशकों के पास आर्थिक हालात के मुताबिक डेट में निवेश की जाने वाली रकम का अनुपात बदलने की सहूलियत रहती है। मसलन, पिछले 12 महीनों में कई बड़े निवेशकों ने आर्थिक हालात पर अनिश्चिय की स्थिति की वजह से इक्विटी की राह पकड़ने के बजाय डेट का दामन थामना बेहतर समझा। दिलचस्प है कि इस समुदाय से ताल्लुक रखने वाले कई निवेशकों ने दिसंबर 2007 में ही डेट के विकल्प पर गौर करना शुरू कर दिया था जब इक्विटी बाजारों में गजब की तेजी जारी थी। इन निवेशकों की दलील थी कि 3-4 साल की तेजी के बाद निवेशकों को मुनाफा बचाने के लिए डेट की ओर लौटना होगा। कुछ के लिए रफ्तार पकड़ती महंगाई दर और ब्याज दर पोर्टफोलियो में डेट की अहमियत बढ़ाने के संकेत थे। वास्तव में 2007 के मध्य में आयोजित एक सम्मेलन में एक शीर्ष बीमा कंपनी के फंड मैनेजर ने कहा था कि जब निवेशक इक्विटी के पीछे दौड़ रहे हैं, तो उनका फंड डेट, खास तौर से गिल्ट और इनकम फंड में आवंटन बढ़ा रहा है। इन दोनों उत्पादों का प्रदर्शन सभी के सामने है और दुर्भाग्य से मौजूदा स्तरों पर डेट के लिए भी अब भी भागदौड़ जारी है। जो लोग पोर्टफोलियो से ज्यादा रिटर्न के लिए डेट पर गौर कर रहे हैं, उन्हें 12 से 15 महीने की निवेश अवधि के साथ गिल्ट और इनकम फंड जैसे उत्पादों का विकल्प चुनना चाहिए क्योंकि दरों में कटौती का दौर खत्म होने के बाद इन स्कीम से मिलने वाला रिटर्न अपनी चमक खोना शुरू कर देगा। इसके उलट लंबी अवधि के लिए पैसा लगाने वाले निवेशकों को कंपनियों की ओर से फिक्स्ड डिपॉजिट जैसे तय रिटर्न देने वाले उत्पाद चुनने चाहिए जो 10 फीसदी या उससे ज्यादा रिटर्न दे रहे हैं। हालांकि डिपॉजिट में पैसा डालते वक्त आपको टैक्स से जुड़े विषय पर भी गौर करना चाहिए जो यील्ड कम कर सकता है।
-श्रीकला भाष्यम

Monday, April 13, 2009

महंगाई दर 30 साल में सबसे कम, पर खाने का चीज महंगा

नई दिल्ली : आम चुनाव से कुछ ही दिन पहले जारी आंकड़े के मुताबिक मुद्रास्फीति की सालाना दर गिरकर तीन दशक के निम्नतम स्तर 0.26 फीसदी पर पहुंच गई, हालांकि जरूरी खाद्य पदार्थों की कीमतों में 17 फीसदी तक की बढ़ोतरी हुई। मार्च 28 को खत्म हुए हफ्ते के दौरान थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति में पिछले सप्ताह के मुकाबले 0.05 फीसदी की गिरावट दर्ज हुई। पिछले सप्ताह महंगाई दर 0.31 फीसदी थी।

मुद्रास्फीति जहां शून्य के करीब पहुंच गई है वहीं वित्त वर्ष 2008-09 के दौरान मूल्य वृद्धि की औसत दर 8.4 फीसदी रही जबकि 2007-08 में यह 4.7 फीसदी थी। पिछले साल के मुकाबले इस साल की नमक, चीनी, दूध, अनाज, दाल, तैयार खाद्य पदार्थ, मसाले और फल महंगे रहे। गन्ने की के उत्पादन में कमी के मद्देनजर चीनी की कीमत में भी 17 फीसदी की बढ़ोतरी हुई। मुद्रास्फीति चुनाव एक प्रमुख मुद्दा बन गया है। हर राजनीतिक पार्टी गरीबों के लिए सस्ते राशन का वायदा कर रही है।

नमक की कीमत में 10.68 फीसदी, दूध की कीमत 6.22 फीसदी की बढ़ोतरी हुई जबकि अनाज 9.61 फीसदी, दाल 8.46 फीसदी और फल 8.02 फीसदी महंगा हुआ। हालांकि मुख्य तौर पर खनिज, धातु, ईंधन, ऊर्जा और ल्यूब्रिकेंट की कीमतों में गिरावट के कारण मुद्रास्फीति तीन दशक के निम्नतम स्तर पर पहुंची। मुदास्फीति के इतने निम्न स्तर पर पहुंचने के कारण विश्लेषकों को लगता है कि भारतीय रिजर्व बैंक ब्याज दरों में और कटौती का संकेत दे सकता है।

रिजर्व बैंक के गवर्नर डी सुब्बाराव ने बुधवार को मुंबई में व्यावसायिक बैंकों के प्रमुखों के साथ ब्याज दर के हालात की समीक्षा की। आरआईएस के महानिदेशक नागेश कुमार का कहना है कि मांग की कमी के कारण मुद्रास्फीति कम हो रही है। वित्त मंत्रालय का कहना है कि 28 मार्च 2009 को समाप्त सप्ताह के दौरान इसके पिछले सप्ताह के मुकाबले प्राथमिक उत्पादों की मुद्रास्फीति में गिरावट हुई। हालांकि सालाना स्तर पर इनमें 3.46 फीसदी की बढ़ोतरी हुई।

नए मुद्रास्फीति इंडेक्स बताएगा महंगाई का असल चेहरा

नई दिल्ली- देश में महंगाई के बैरोमीटर यानी थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यूपीआई) का चेहरा जल्द बदलने जा रहा है। जल्द डब्लूपीआई में शामिल चीजों की संख्या में दो-तिहाई की बढ़ोतरी हो जाएगी। वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय के एक अधिकारी ने नाम नहीं जाहिर करने की शर्त पर ईटी को बताया कि नया सूचकांक महंगाई की ज्यादा सही तस्वीर पेश करेगा। नए सूचकांक यानी इंडेक्स के इस साल अगस्त तक आ जाने की संभावना है। नए इंडेक्स के परीक्षण का काम शुरू हो चुका है। नए डब्लूपीआई के लिए 2004-05 को आधार वर्ष बनाया गया है। नए आधार वर्ष वाला प्राथमिक इंफ्लेशन इंडेक्स के इस साल अगस्त तक आ जाने की संभावना है। हालांकि, अंतिम इंडेक्स इस साल दिसंबर तक ही तैयार हो पाएगा। अधिकारी ने बताया कि नया इंडेक्स तैयार करने में सबसे बड़ी बाधा भारी संख्या में आंकड़े संग्रह करना था। लेकिन नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गनाइजेशन (एनएसएसओ) में आंकड़ों के संग्रह के लिए नए पदों की मंजूरी वाले विधेयक के पारित होने से बड़ी बाधा खत्म हो गई है। मुद्रास्फीति के आंकड़े मासिक आधार पर जारी करने का भी प्रस्ताव आया है। अभी सांख्यिकी मंत्रालय द्वारा हर हफ्ते मुद्रास्फीति के आंकड़े जारी किए जाते हैं। हालांकि, नए डब्लूपीआई के आ जाने के बाद भी आंकड़ा संग्रह करने का काम साप्ताहिक आधार पर जारी रहेगा। वाणिज्य मंत्रालय के सूत्रों के मुताबिक इस प्रस्ताव के पारित हो जाने की पूरी संभावना है। नई सरकार के बन जाने के बाद इस प्रस्ताव को हरी झंडी मिल जाने की संभावना है। मासिक आधार पर मुद्रास्फीति दर के आंकड़े जारी करने के प्रस्ताव के पीछे कारण यह है कि नए इंडेक्स में 1,000 से अधिक चीजें शामिल हैं। ऐसे में आंकड़े जुटाने और उनका प्रसंस्करण करने में समय लगेगा। वर्तमान डब्लूपीआई में 435 चीजें शामिल हैं। डब्लूपीआई इंडेक्स को व्यापक बनाने के लिए वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय और डब्लपीआई में बदलाव के लिए गठित कार्य समूह ने प्रत्येक कमोडिटी की कम से कम चार से पांच कीमतें हासिल करने का प्रस्ताव दिया है। इस तरह से संशोधित इंडेक्स में साप्ताहिक आधार पर 6,000 से अधिक कीमतें जुटानी होगी और उनका प्रसंस्करण करना होगा। हालांकि, हर हफ्ते कीमतों में ज्यादा बदलाव देखने को नहीं मिलता है। नए इंडेक्स से सरकार को सटीक नीति तैयार करने में मदद मिलेगी। क्रिसिल के वरिष्ठ अर्थशास्त्री सुनील सिन्हा ने बताया कि इसकी वजह यह है कि नीति तैयार करने के लिए लंबी अवधि के रुझान को आधार बनाया जाता है।
-शोभना चड्ढा

Sunday, April 12, 2009

How to secure your child's future?


On at least one aspect, I think several of the insurance company advertisements have got it spot on. The initial celebrations on the arrival of the child gradually leads to a more sober reflection on how best to ensure his / her comfortable upbringing and education. Doubtless, finances are but one aspect of this concern; but they are an important one! Moreover, they are probably much easier addressed than some of the softer and other cultural aspects of parenting.

INVESTMENTS

Investment is distinct from Savings
Savings simply mean you set aside a portion of your income for future use. Yet, it is (careful and planned) investing that makes maximum use of these savings and optimizes your portfolio in later years. This is especially important since inflation tends to erode the purchasing power of money over a period of time. A headline inflation of 6%-7%, actually translates into a lifestyle inflation of 10%. Thus, if your money is lying in a deposit fetching 7% interest rate, you are actually eroding wealth!

‘India’ is the best growth story to invest in
In contrast, with the medium to long-term prospects of India’s growth being as strong as they are, the long-term returns on equity can be assumed to be 15%. Thus, this provides an effective way to not get left behind the growth story that is India. In addition, investing in equity as an asset class, if well researched and carefully done, enjoys various benefits, such as:

High liquidity, to withdraw money in desired quantity whenever needed
High flexibility in terms of investing as and when funds are available
Favourable tax treatment (especially compared to real estate and fixed deposits)
Low transaction costs
High degree of transparency in knowing how your corpus grows
The power of compounding
Returns on investments exhibit the effect of compounding. Very simply put, it means that the returns earned on the investment in the first year, gets added to the corpus in subsequent years and fetches its own returns. Thus, in the illustrative returns shown above, if you invest Rs. 1 crore today in equity @15%, the corpus would grow to Rs 4 crore in 10 years time. In contrast, in a fixed deposit @7%, the corpus would only be Rs 2 crore in 10 years time.

Index investing
Investing in the index is possibly the best long-term way to benefit from the India growth story. You can invest in the index either one-time, or systematically as you earn more, or a combination of these. The benefit of index investing is the low transaction cost and low need for research involved. Thus, for those not very comfortable with the markets, or with those having no time to do extensive research, it is also a good starting point to gain familiarity with the working of equity markets.

Once you are more comfortable with equity markets and with how an investment portfolio works, you can consider allocating funds to more actively managed portfolios as well. These require much more research and active management, but at the same time have the potential to generate higher returns than the index by leveraging existing market conditions.

Trust formation
Very often we come across customers desirous of making a trust in each of their children’s names. In India, unlike in some other countries, such trusts by themselves have no special tax benefits. Yet, they often have softer benefits such as helping mentally allocate resources for each child’s milestones, monitor each set of investments clearly, etc. Given the formalities and procedures around trust formation, maintenance and reporting, we would recommend this to people having a large corpus only. With most others, the money may be managed through mental accounting alone, without going through the legal procedures around trust creation.

LIFE INSURANCE

The concept of life insurance is to secure the lifestyle and indeed the financial well being of the family in the unfortunate event of the breadwinner not being around. Due to cultural reasons, this often brings unpleasant thoughts, and hence the subject of insurance gets pushed under the carpet.

However, we would rather look at it as a means to lead a more secure and worry-free life. While the emotional trauma of loss of a family member is unavoidable, insurance atleast spares the financial burden that this could bring. Thus, an insurance of five to seven times annual earnings is a useful benchmark to have as amount of life insurance.

A term plan is a simple and effective life insurance policy. Very roughly, the annual premium for a healthy 35-year old, for a life cover of Rs. 1 crore, should amount to about Rs. 45,000. There are two important points to note here: the earlier you start the life cover, the lower the premium rate you can lock-in (once locked-in, the premium does not ever change). Secondly, it is a huge benefit to start life insurance when one is healthy and unaffected by any chronic ailments. This ensures much lower premiums, and a hassle-free claims process.

We would, at this stage, advise against the more complicated unit linked products; or the typically low yielding ‘traditional’ insurance products. These are useful for investors only in very specific cases, and only when the investors have understood the cost-benefit equations of these plans very carefully. The insurance agents very seldom do such elucidation; and hence it may be useful to stay away from these for a while.

KEY NEXT STEPS

Just as it is impossible to learn swimming without jumping into the pool, we believe a start has to be made sometime along both these dimensions. And there is no better time than today!

Thus, we would recommend a simple starting point for parents thinking about their child’s future:

Invest a lump sum in an index fund, and plan to systematically build this through authorising smaller additional investments monthly. You can look at research to see which are the good funds, and keep your portfolio under periodic monitoring.
Insure your life, for atleast five times your annual earnings. Again, a simple shopping expedition should get you the best term insurance cover applicable for your age and health.


-Ramganesh Iyer

Some Do’s and Don’ts to tackle the turbulent times

The current crisis is perhaps the worst that any investor could face in his life time. No wonder, these turbulent times have played havoc in the minds of investors including the most experienced and the seasoned ones. Needless to say, small investors are the worst hit by this downturn both in terms of capital loss as well as loss of confidence in their investment strategy. In times like these, investors often feel compelled to take some irrational decisions that can have a devastating effect on their prospects to achieve long-term investment goals.

It is, therefore, necessary for investors to demonstrate patience and perseverance to tackle these difficult times. Let us discuss a few do’s and don’ts that can go a long way in tackling these extraordinary times.

Do continue with your SIPs

One of the major disturbing trends that have emerged in the recent times is rethinking by many investors on their investments being made through Systematic Investment Plans (SIPs) in equity funds. While some have discontinued their SIPs mid way, others have decided not to renew the SIP for a further time period.

While it is true that even SIP investors have also suffered losses in the current downturn, the impact on their portfolios is much less compared to those who invested a lump sum amount at the peak levels. The point to remember is that their fresh investments at the current levels through SIP will go a long way in accelerating the recovery process going forward. The “Rupee Cost Averaging” will work the best for them as the current NAVs are at considerable lower levels as compared to say a year ago.

Remember, a disciplined approach takes away the speculative element from the investment strategy and ensures success. Therefore, if you are thinking of discontinuing your SIP, you need to rethink. By bringing your average cost down in a disciplined manner, you could be amongst the first ones to benefit from the market recovery, as and when it happens.

Don’t switch existing equity investments into conservative options in a panic
We make our worst investment mistakes in panic situations. The current scenario is not different. Many investors are moving their equity investments into conservative options like fixed deposits or debt and debt oriented funds. The fall in the equity portfolio value along with continuous negative news flows and the resultant uncertainties are adding to the anxiety for many more investors. While the move to switch investments into more conservative options may seem like a sensible thing to do, the fact remains that selling in a down market can be a costly mistake. Though investing fresh money in conservative options to remove the imbalance in the portfolio is all right, a haphazard approach for existing investments in equities can expose you to the risk of falling short of long term financial goals.

Don’t equate negative returns with poor performance

Negative returns from equity funds are commonly perceived as poor performance. In a current market like situation where the stock market has witnessed a steep fall over the last one year or so, even the best of fund mangers have given negative returns. The key is to compare the performance of your funds with their peer groups and then analyse their performance. If your funds have fallen less than their peer group and the fund managers have stuck to their investment philosophies, it makes sense to continue with them.
History shows that quality funds yield above average returns over time. The years of spectacular growth will help even out your portfolio returns during bear markets. Therefore, it is vital that you don’t allow your expectations to be distorted by extraordinary returns during the bull runs as well as by the dismal returns during the bear markets.

Don’t hesitate to realign your portfolio

Many of us have the tendency to chase performance in a rising market and hence end up investing a significant portion of our investments in those equity funds that are flavour of the month. The result in most cases is over-exposure to certain sectors and segments of the market like mid-cap and small cap thereby exposing us to much higher levels of risk than our risk taking capacity. Considering the current economic scenario, some of the sectors as well as segments of the stock market are likely to struggle over the next couple of years. Therefore, it makes sense to realign the portfolio in favour of diversified funds that have bias towards the large cap stocks.

However, many investors simply refuse to make changes, irrespective of the unfavourable mix of funds in the portfolio as they simply hate the idea of booking losses. More often than not, they take it as a personal defeat and refuse to exit from a fund unless the NAV reaches the level at which they got into the fund. They fail to realize that a non-performing fund will take much longer to recover the losses, if at all.

On the other hand, by moving money to a fund that is likely to do better in future, not only can they recover the losses much faster but also benefit from the healthy growth in the long run. Though equity investments are essentially long term investments, it is equally necessary to make changes in the portfolio from time to time to get the best results.
-Hemant Rustagi

Monday, April 6, 2009

बैंक डूबने पर भारत में कितना डिपॉजिट सेफ?

अगर कोई बैंक डूब जाए तो उसमें जमा आपके पैसे का क्या होगा? अगर रकम एक लाख से कम है, तब तो पूरी की पूरी हाथ लग जाएगी। लेकिन, इससे ज्यादा होने पर सिर्फ एक लाख से ही संतोष करना पड़ सकता है। भारत में डिपॉज़िट इन्शुअरन्स एंड क्रेडिट गारंटी कॉर्परेशन (डीआईसीजीसी) एक लाख रुपये तक के जमा (सेविंग, फिक्स्ड, करेंट आदि) को ब्याज सहित लौटाने की गारंटी देता है। यह कॉर्परेशन भारतीय रिजर्व बैंक की एक इकाई है।

फिलहाल जमा बीमा की सीमा एक लाख से बढ़ाकर 2 लाख करने की बात चल रही है। हालांकि, बैंकों की ओर से इसे और बढ़ाने की मांग की जा रही है। उनकी शिकायत है कि वैश्विक वित्तीय संकट की वजह से एनआरआई देश के बैंकों में जमा रकम निकाल रहे हैं। हालांकि, उन्हें भारत में ब्याज ज्यादा मिलता है, लेकिन आज के माहौल में लोगों में रिटर्न से ज्यादा सुरक्षा की चिंता है।

अमेरिका में फेडरल डिपॉजिट इन्शुअरन्स कॉर्परेशन, जमाकर्ताओं को 2 लाख 50 हजार डॉलर (करीब 1.2 करोड़ रुपये) लौटाने की गारंटी देता है। कई अन्य देशों में भी इस इन्शअरन्स की सीमा भारत के मुकाबले काफी ज्यादा है।

क्या है राजकोषीय और राजस्व घाटा

क्या है राजकोषीय घाटा?
सरकार की कुल आय और व्यय में अंतर को राजकोषीय घाटा कहा जाता है। इससे पता चलता है कि सरकार को कामकाज चलाने के लिए कितनी उधारी की जरूरत होगी। कुल राजस्व का हिसाब-किताब लगाने में उधारी को शामिल नहीं किया जाता है। राजकोषीय घाटा आमतौर पर राजस्व में कमी या पूंजीगत व्यय में अत्यधिक वृद्धि के कारण होता है। पूंजीगत व्यय लंबे समय तक इस्तेमाल में आने वाली संपत्तियों जैसे-फैक्टरी, इमारतों के निर्माण और अन्य विकास कायोर्ं पर होता है। राजकोषीय घाटे की भरपाई आमतौर पर केंदीय बैंक (रिजर्व बैंक) से उधार लेकर की जाती है या इसके लिए छोटी और लंबी अवधि के बॉन्ड के जरिए पूंजी बाजार से फंड जुटाया जाता है।

राजकोषीय और प्राथमिक घाटे में क्या अंतर है?

प्राथमिक घाटा राजकोषीय घाटे का एक हिस्सा होता है। राजकोषीय घाटा पूरा करने के मकसद से ली गई उधारी पर सरकार को जो ब्याज देना पड़ता है, उसे राजकोषीय घाटे में से घटाने से हासिल आंकड़ा प्राथमिक घाटा होता है।

राजकोषीय घाटे पर क्या है विशेषज्ञों की राय?

इसके बारे में अर्थशास्त्रियों की अलग-अलग राय है। जॉन मेनार्ड कींस के हिसाब से राजकोषीय घाटा अर्थव्यवस्था को मंदी में फंसने से बचाता है। दूसरी विचारधारा के अर्थशास्त्रियों की राय में किसी भी देश में राजकोषीय घाटा नहीं होना चाहिए। ज्यादातर अर्थशास्त्री मानते हैं कि केंदीय बैंक से कर्ज लेकर राजकोषीय घाटे की भरपाई करने पर मुदास्फीति दर में इजाफा होने के आसार बनते हैं। भारत में राजकोषीय घाटा ज्यादा होने की वजह से मुदास्फीति दर भी ज्यादा है।

क्या है राजस्व घाटा?

सरकार की अनुमानित राजस्व प्राप्ति और व्यय में अंतर होने से राजस्व घाटा होता है। यह अनुमान से कम वास्तविक शुद्ध राजस्व प्राप्ति की वजह से होता है। वास्तविक राजस्व वसूली उम्मीद से ज्यादा होने पर रेवेन्यू सरप्लस की स्थिति पैदा होती है। राजस्व घाटा होने का मतलब वास्तविक राजस्व वसूली में कमी नहीं होती। इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। मान लिया कि किसी देश ने 100 रुपए का राजस्व हासिल होने और उसमें से 75 रुपए व्यय होने अनुमान लगाया है। सचमुच में ऐसा होने पर उसे 25 रुपए का शुद्ध राजस्व हासिल होगा। अगर उसे वास्तव में 90 रुपए का ही राजस्व हासिल होता है और वह 70 रुपए व्यय कर देता है, तो उसका शुद्ध राजस्व 20 रुपए होगा। यह बजटीय शुद्ध राजस्व प्राप्ति से 5 रुपए कम है और यह राजस्व घाटा कहलाता है।

भारत में इस समय क्या स्थिति है?

अर्थव्यवस्था में जान फूंकने के लिए सरकार ने कई राहत और विकास पैकेजों का एलान किया है जिससे देश का राजकोषीय घाटा बढ़ा है। अंतरिम बजट में 9,53,231 करोड़ रुपए व्यय का प्रस्ताव भी किया गया है। रिजर्व बैंक ने हाल ही में कहा है कि राजकोषीय घाटा 2.5 फीसदी के पूर्वानुमान से लगभग दोगुना 5.9 फीसदी हो सकता है। यह 1,50,310 करोड़ रुपए के घाटे के आरंभिक अनुमान के मुकाबले 3,54,731 करोड़ रुपए होगा। करों में कटौती से सरकार को 36,074 करोड़ रुपए का राजस्व नुकसान हो सकता है।

इक्विटी निवेशकों के लिए क्यों महत्वपूर्ण होते हैं तिमाही नतीजे?

कंपनियों के तिमाही नतीजे घोषित करने का समय फिर आ गया है। इस बार जनवरी से मार्च की चौथी तिमाही का बही-खाता पेश किया जाएगा। इस वित्त वर्ष की तीन तिमाहियां बीत चुकी हैं और इस बार के नतीजे 2008-09 में मंदी के दौरान कंपनियों की आर्थिक स्थिति का लेखा-जोखा होंगे। विश्लेषक और निवेशक इनकी बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहे हैं क्योंकि कॉरपोरेट जगत पर मंदी के असर की जानकारी इनसे मिलेगी। इसके साथ ही यह भी पता चलेगा कि चुनौती के समय में प्रबंधन ने कितनी कुशलता से कारोबार को आगे बढ़ाया है।

क्या होते हैं तिमाही नतीजे?

तिमाही नतीजों के जरिए कंपनियां तीन महीनों के अपने प्रदर्शन की रिपोर्ट पेश करती हैं। स्टॉक एक्सचेंजों के साथ लिस्टिंग समझौते के तहत नतीजों की घोषणा करना कंपनियों के लिए जरूरी होता है। ये नतीजे जनवरी, अप्रैल, जुलाई और अक्टूबर में सार्वजनिक किए जाते हैं।

तिमाही आमदनी की घोषणाओं में आमतौर पर गैर ऑडिटेड वित्तीय नतीजे, तिमाही में कारोबार की स्थितियां और भविष्य में कारोबारी संभावनाओं का जिक्र होता है। आमदनी की रिपोर्ट में शुद्ध आय, प्रति शेयर आय, जारी कारोबार से आमदनी और शुद्ध बिक्री जैसी मद शामिल होती हैं। इससे कंपनी की वित्तीय स्थिति और कारोबारी माहौल को समझने में मदद मिलती है।

अगली तिमाहियों के अनुमान

कुछ कंपनियां इन नतीजों के साथ भविष्य के लिए अपने अनुमान भी जाहिर करती हैं। इन्हें गाइडेंस कहा जाता है। यह अगली तिमाही और वित्त वर्ष के लिए कारोबार के बारे में प्रबंधन का अनुमान होता है। कंपनी से वित्तीय उम्मीदें तय करने के लिए गाइडेंस हत्वपूर्ण होती है। अगर कंपनी की पिछली गाइडेंस और तिमाही नतीजे मेल खाते हैं तो इससे प्रबंधन की कुशलता का पता चलता है। अगर कंपनी के अनुमान और उसके नतीजों में बड़ा अंतर होता है तो इसका मतलब है कि प्रबंधन पर आप आगे भी ज्यादा भरोसा नहीं कर सकते। इन्हीं अनुमानों के आधार पर छोटी अवधि के निवेशक कई बार किसी कंपनी के शेयर खरीदने या बेचने का फैसला भी करते हैं।

कंपनी के प्रदर्शन का अक्स

तिमाही नतीजे कंपनी के प्रदर्शन का बड़ा संकेत देते हैं। इसी वजह से विश्लेषक और निवेशक इनका इंतजार करते हैं। आमतौर पर विश्लेषक अनुमानों के आधार पर अपनी उम्मीदें जाहिर करते हैं। इन सभी अनुमानों को मिलाकर कंपनी के प्रदर्शन को देखा जाता है। सच्चाई यह है कि आमदनी का अनुमान लगाना बहुत मुश्किल होता है। कंपनी की आय को लेकर ब्रोकरेज हाउस के अनुमान हकीकत से कुछ अधिक हो सकते हैं। कंपनियों के लिए खुद भी इनकी सही भविष्यवाणी करना आसान नहीं होता।

नतीजों के सीजन के लिए निवेश की रणनीति

कंपनियों के नतीजे आने के साथ ही उनके शेयर के दाम पर भी इनका असर दिखने लगता है। अगर नतीजे उम्मीद से बेहतर रहते हैं तो शेयर की कीमत चढ़ती है लेकिन अगर ये अनुमानों से कम या करीब रहते हैं तो इनमें गिरावट भी आ सकती है। अगर किसी कंपनी के आंकड़े लगातार कई तिमाहियों तक उम्मीद से कम रहते हैं तो हो सकता है कि कंपनी समस्याओं का सामना कर रही हो। छोटी अवधि के निवेशक तिमाही नतीजों के आधार पर निवेश की रणनीति तैयार कर सकते हैं।

लंबी अवधि के निवेशक इन्हें देखकर यह अंदाजा लगा सकते हैं कि उनकी कंपनी कैसा कारोबार कर रही है। किसी शेयर को आंकने के लिए उसके पिछले नतीजों को देखना भी जरूरी होता है। अगर प्रबंधन ने वित्त वर्ष की अपनी कारोबारी योजना का खुलासा पहले ही कर दिया है तो तिमाही नतीजों से निवेशक को यह पता चलता है कि योजना किस दिशा में और कितनी गति से बढ़ रही है। निवेशकों को यह भी देखना चाहिए कि कहीं कंपनी ने आंकड़ों में कोई हेरफेर तो नहीं की है। उदाहरण के लिए कोई कंपनी मौजूदा तिमाही की आमदनी को जोड़कर उससे जुड़े खर्चों को अगली तिमाही में दिखाने के साथ अपना अधिक मुनाफा दिखाने की कोशिश कर सकती है। इसके अलावा वह अनुमानों पर पूरा उतरने के लिए तिमाही के अंत में उत्पादों को कम दाम पर भी बेच सकती है। ऐसा होने से कंपनी के वास्तविक प्रदर्शन का संकेत मिल पाना बहुत मुश्किल हो जाता है।

क्या होता है शेयर आर्बिट्राज?

दो अलग-अलग बाजार में किसी फाइनेंशियल प्रोडक्ट की कीमत के बीच के अंतर का फायदा उठाने की रणनीति आर्बिट्राज कहलाती है। इसमें आर्बिट्राज करने वाला व्यक्ति या संस्थान यानी आबिर्ट्राजर एक बाजार में कम दाम पर उत्पाद खरीदकर तुरंत दूसरे बाजार में ऊंची कीमत पर बेचता है। माना कि कोई आबिर्ट्राजर हाजिर बाजार में 10 रुपए की दर से किसी कंपनी के 100 शेयर खरीदता है और वायदा बाजार में 10.10 रुपए की दर से बेच देता है। इस सौदे में लेनदेन की लागत नहीं आती है, ऐसा मान लिए जाने पर आर्बिट्राज करने वाले को कुल 10 रुपए का लाभ होता है।

क्या है इसकी बुनियादी शर्तें?

हर सामान की एक कीमत का सिद्धांत लागू होने पर आर्बिट्राज मुमकिन नहीं। यानी कि आर्बिट्राज का अवसर तभी बनेगा जब कीमत में अंतर होगा। आर्बिट्राज के लिए प्रोडक्ट का किसी समय अलग-अलग भाव होना जरूरी है। आर्बिट्राजर कई बार एक जैसे कैश फ्लो वाले अलग-अलग प्रोडक्ट का इस्तेमाल करते हैं। इस रणनीति से ये फाइनेंशियल प्रोडक्ट के हाजिर और वायदा बाजार में कीमत के बीच अंतर का भी फायदा उठाते हैं। इसमें प्रोडक्ट का हाजिर भाव वायदा मूल्य और उसके कॉस्ट ऑफ कैरी से ज्यादा नहीं होना चाहिए।

कितने तरह के होते हैं आर्बिट्राज?

आर्बिट्राज करने के कई तरीके होते हैं जैसे-मर्जर आर्बिट्राज, कनवटिर्बल बॉन्ड आर्बिट्राज और रिवर्स आर्बिट्राज। मर्जर आर्बिट्राज में जिस कंपनी का अधिग्रहण होना है उसके शेयरों में तेजी और जो अधिग्रहण करने वाली है, उसमें मंदी का सौदा किया जाता है। इसमें आर्बिट्राजर अधिग्रहीत होने वाली कंपनी के शेयरों के बाजार भाव और अधिग्रहण करने वाली कंपनी के पेशकश मूल्य के बीच के अंतर यानी स्प्रेड में खेलता है। आमतौर पर फाइनेंशियल प्रोडक्ट का वायदा भाव हाजिर भाव से ज्यादा होता है। लेकिन कभी-कभार वायदा भाव हाजिर से नीचे आ जाता है तो आर्बिट्राजर को कमाई करने का मौका मिल जाता है। वे हाजिर बाजार में प्रोडक्ट को बेचकर उसे वायदा बाजार में खरीद लेते हैं। यह रिवर्स आर्बिट्राज कहलाता है।

आर्बिट्राजर में क्या जोखिम होते हैं?

आमतौर पर आर्बिट्राजर में जोखिम कम होता है लेकिन कुछ घटनाएं नुकसान का खतरा बढ़ा सकती हैं। उदाहरण के लिए, कोई आर्बिट्राजर मर्जर आर्बिट्राजर में पोजीशन लेता है लेकिन विलय नहीं हो पाता है। ऐसे में आर्बिट्राजर का काफी बड़ा नुकसान हो सकता है। आर्बिट्राजर में एक एक्सचेंज से कम भाव पर शेयर खरीद कर दूसरे में ऊंचे दाम पर बेचा जाता है। लेकिन शेयरों की कीमत में अंतर काफी समय के लिए रहता है। अगर कोई निवेशक एक ही समय में खरीदारी और बिकवाली न करे तो उसे नुकसान होने का खतरा पैदा हो जाता है।

वर्तमान स्थिति क्या है?

पिछले एक साल से निवेशक उन फाइनेंशियल प्रोडक्ट में ज्यादा दिलचस्पी ले रहे हैं जिनमें अर्थव्यवस्था और शेयर बाजार में अत्यधिक अनिश्चय की स्थिति होने से जोखिम अपेक्षाकृत कम है। कुछ समय से आर्बिट्राज फंड में भी अच्छा खासा निवेश हो रहा है और ये बेहतर प्रदर्शन भी कर रहे हैं। कुल मिलाकर आर्बिट्राज फंडों ने सेंसेक्स को भी पछाड़ दिया है। पिछले एक साल में सेंसेक्स 40 फीसदी कमजोर हुआ है। लेकिन ज्यादातर आर्बिट्राज फंडों ने इस दौरान 6 से 10 फीसदी का रिटर्न दिया है। पिछले एक साल में यूटीआई स्प्रेड फंड-ग्रोथ 9.68 फीसदी और एचडीएफसी आर्बिट्राज फंड-आईपी-ग्रोथ 7.68 फीसदी बढ़ा है।

पीएलआर और होम लोन दर में क्या है रिश्ता

प्रमुख उधारी दर यानी प्राइम लेंडिंग रेट (पीएलआर) होम लोन लेने वालों के लिए काफी अहमियत रखती है। आइए जानते हैं, आपकी होम लोन ब्याज दर के कम होने में इसकी क्या भूमिका है
क्या है पीएलआर?
यह ब्याज की बेंचमार्क दर होती है जिस पर बैंक विश्वसनीय ग्राहकों को कर्ज मुहैया कराते हैं। दूसरे ग्राहकों के लिए ब्याज दरें तय करते वक्त इस दर को पैमाने के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है।
कब बदलती है पीएलआर?
बैंक की अपनी नीति के अलावा पीएलआर इस बात पर निर्भर करती है कि रिजर्व बैंक नकद आरक्षित अनुपात (सीआरआर) और रेपो रेट जैसी अहम दरों में कितना बदलाव करता है। जब कर्ज देने वाली संस्था पीएलआर बढ़ाती या घटाती हैं तो इससे कर्जदारों के लिए नकदी का प्रवाह कम या ज्यादा होता है।
पीएलआर और होम लोन ब्याज दरों का रिश्ता
पीएलआर एक बेंचमार्क दर है जो संस्था के हिसाब से अलग-अलग हो सकती है। बैंकों की ओर से वसूली जाने वाली ब्याज दर बेंचमार्क पीएलआर से 0.50 फीसदी ज्यादा हो सकती है। बैंक की पीएलआर में कमी से कर्जदारों पर ब्याज का बोझ कम हो सकता है।
पीएलआर पर अहम पॉलिसी दरों का प्रभाव
आर्थिक तंत्र में उठापटक की स्थिति से निपटने के लिए रिजर्व बैंक महत्वपूर्ण पॉलिसी दरों में बदलाव करता रहता है। मसलन, रिजर्व बैंक आर्थिक तंत्र से अतिरिक्त रकम बाहर निकालने, मुद्रास्फीति को काबू में करने, मंदी पड़ती अर्थव्यवस्था में जान फूंकने, नकदी की स्थिति बेहतर करने और कीमतों में तेजी को नियंत्रित करने के लिए उपाय करता रहता है। सीआरआर फंड का वह हिस्सा होता है जो बैंकों को रिजर्व बैंक के पास रखना होता है। रेपो रेट वह दर है जिस पर बैंकों को आरबीआई से कर्ज मिलता है। अगर आरबीआई रेपो रेट घटाता है तो बैंकों के लिए कर्ज लेना सस्ता होता है। सीआरआर और रेपो रेट में कमी से तंत्र में तरलता बढ़ती है।

क्या है महंगाई दर और कैसे होती है इसकी गणना

मुद्रास्फीति दर शून्य के करीब खड़ी है। ज्यादा वक्त नहीं बीता है जब महंगाई दर का 0.44 फीसदी तक लुढ़कना नामुमकिन सा लग रहा था। लेकिन आज यह हकीकत है। मुद्रास्फीति दर ने गिरावट के मामले में 32 साल का रेकॉर्ड तोड़ दिया है। आप और क्या उम्मीद कर सकते हैं? सबसे पहले हमें यह समझने की जरूरत है कि मुद्रास्फीति दर के आंकड़े कैसे आंके जाते हैं? देश की महंगाई दर थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यूपीआई) के आधार पर आंकी जाती है। इस सूचकांक का इस्तेमाल उन उत्पादों की औसत कीमत स्तर में बदलाव आंकने के लिए किया जाता है जिनका कारोबार थोक बाजार में होता है। डब्ल्यूपीआई के जरिए 400 से ज्यादा कमोडिटी पर निगाह रखी जाती है। कमोडिटी बास्केट में आने वाली चीजों की समीक्षा नियमित रूप से की जाती है ताकि कुछ सामान जरूरत से ज्यादा अहमियत न रखें। डब्ल्यूपीआई तक पहुंचने के लिए निर्मित उत्पादों, ईंधन और प्राथमिक वस्तुओं के दाम का इस्तेमाल किया जाता है। कई लोगों की दलील है कि डब्ल्यूपीआई सटीक रूप से मुद्रास्फीति के दबाव का अंदाजा नहीं देता। इसलिए कई मुल्कों ने अब कंज्यूमर प्राइस इंडेक्स (सीपीआई) की राह पकड़ ली है। सीपीआई उपभोक्ताओं की ओर से खरीदे जाने वाले उत्पादों और सेवाओं के खास सेट की वेटेड औसत कीमत को आंकने से जुड़ा सांख्यिकीय माप है। क्या चीजें वास्तव में सस्ती हो रही हैं? महंगाई दर शून्य तक पहुंच रही है लेकिन किराने का बिल कुछ और ही संकेत दे रहा है। खाद्य सामग्री के दाम अब भी ऊंचे हैं। खाद्यान्न एक साल पहले के मुकाबले नौ फीसदी महंगा है। प्राथमिक खाद्य वस्तुओं की कीमतें अब भी चढ़ रही हैं। डब्ल्यूपीआई में गिरावट मुख्य रूप से ईंधन और मैन्युफैक्चरिंग की वजह से है। इसलिए, कम महंगाई दर के बावजूद खाद्य वस्तुओं की कीमतें ज्यादा बनी हुई हैं। अगर यह चलन जारी रहता है तो भारतीय रिजर्व बैंक आगे कदम बढ़ाकर दरों में और कटौती कर सकता है। बेरोजगारों की तादाद बढ़ने और नौकरियों में छंटनी की वजह से भी मांग घट रही है। मांग में गिरावट मुद्रास्फीति दर को शून्य के करीब ले जाने वाला अहम कारण है।
अनिश्चित हालात में निवेश
निवेशक अब मुद्रास्फीति और कीमतों में बढ़ोतरी के चलन के आदी हो गए हैं। अपस्फीति यानी डिफ्लेशन जैसा नाम यहां ज्यादा सुना नहीं गया है। इसी वजह से कई निवेशक अतिरिक्त रकम लगाने के लिए सर्वश्रेष्ठ माध्यम चुनने को लेकर भ्रम में हैं। डिफ्लेशन से हमारे मायने उत्पादों और सेवाओं के दामों में लगातार गिरावट आने से हैं। यह मांग घटने, उत्पादन में कमी और अर्थव्यवस्था में कमजोरी से जुड़ी है। जो निवेशक ज्यादा जोखिम लेने की क्षमता रखते हैं उन्हें उन सेक्टरों में निवेश पर गौर करना चाहिए जो मांग में गिरावट से ज्यादा प्रभावित नहीं हुए हैं। स्वास्थ्य सेवा जैसे सेक्टर और ऊर्जा जैसे आवश्यक सेगमेंट में मांग घटने की संभावना नहीं रहती। हालांकि कई कंपनियों पर अर्थव्यवस्था में कमजोरी का सीधा असर पड़ता है। इस वक्त कर्ज के जाल में न फंसने की सलाह दी जाती है। अपनी नौकरी बरकरार रखिए क्योंकि बाहर हालात कुछ अच्छे नहीं हैं।
-कविता श्रीराम

बुक वैल्यू (BV) क्या है?

बुक वैल्यू (BV) क्या है?
बुक वैल्यू किसी भी कंपनी या वस्तु की वह कीमत होती है, जो एक खास समय पर उसे खुले बाजार में बेचने पर मिलेगी। मोटे तौर पर यह खरीद भाव में से डिप्रेशिएसन कीमत घटाकर प्राप्त हो सकती है। जैसे अगर आपने 5 लाख रुपए में एक कार खरीदी और अगर हर साल इसमें 15 फीसदी का डिप्रेशिएसन होता हो, एक साल बाद इसकी बुक वैल्यू 4.25 लाख रुपए होगी। ब्रिटेन में बुक वैल्यू को ही कंपनी का नेट असेट वैल्यू भी कहा जा सकता है, जिसे कुल परिसंपत्ति में से पेटेंट और साख की कीमत घटाकर प्राप्त किया जाता है।
बुक वैल्यू ऑफ इक्विटी प्रति शेयर (BVPS) क्या है?
कंपनी के शेयर का जो न्यूनतम मूल्य होता है उसे बुक वैल्यू ऑफ इक्विटी प्रति शेयर कहते हैं। दूसरे शब्दों में किसी कंपनी के सामान्य शेयरों की कीमत में रिजर्व नकदी जमा को जोड़ कर और लाभांश एवं शेयर बायबैक के मद में खर्च की गई रकम को घटाकर जो मूल्य प्राप्त होता है, उसे ही बीवीपीएस कहते हैं। बीवीपीएस किसी भी शेयर के वर्तमान मूल्य का अंदाजा तो देता है, लेकिन इससे उसके भविष्य की संभावनाओं का पता नहीं चलता है। इसलिए बीवीपीएस के आधार पर किसी भी शेयर का पक्का मूल्यांकन करना सही नहीं होता।
P/BV क्या है?
किसी शेयर के बुक वैल्यू से उसके बाजार भाव की तुलना कर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि वह शेयर अपने वास्तविक मूल्य की तुलना में कितना महंगा या सस्ता है। इसके लिए पीबीवी अनुपात का सहारा लिया जाता है। मूल्य-आय अनुपात (पीई) की ही तर्ज पर पीबीवी यानी मूल्य और बुक वैल्यू के अनुपात से यह पता चलता है कि कोई शेयर अपने वास्तविक मूल्य के कितना गुने पर कारोबार कर रहा है।

Saturday, April 4, 2009

स्वास्थ्य बीमा रिन्युअल में अब नहीं रहेगा पचड़ा

मुंबई : बुजुर्गवार और चिकित्सा जांच से गुजर रहे लोगों को अब अपनी स्वास्थ्य बीमा योजनाएं रिन्यू कराने में आसानी होगी। अदालत के आदेशों और विभिन्न समितियों की सिफारिशों पर प्रतिक्रिया देते हुए बीमा नियामक इरडा ने हेल्थ इंश्योरेंस पॉलिसी रिन्यू कराने के नियम बदल दिए हैं।

नए नियमों के मुताबिक किसी भी बीमा कंपनी के लिए हेल्थ इंश्योरेंस पॉलिसी को रिन्यू करना जरूरी है, भले ही व्यक्ति विशेष ने कितने भी क्लेम क्यों न किए हों। इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि बीमा कंपनियों को अब रिन्युअल की तारीख से 15 दिन की छूट देनी होगी और पहले से मौजूद बीमारियों के लिए कवरेज के फायदे जारी रखने होंगे। स्वास्थ्य बीमा कंपनियों के खिलाफ इस बारे में काफी शिकायत होती रही है कि अगर पॉलिसी को रिन्यू कराने में एक दिन की देर भी हो जाती है तो वे बुजुर्ग और इलाज करा रहे लोगों की पॉलिसी रिन्यू करने से बचने की कोशिश करती हैं।

सभी गैर जीवन बीमा कंपनियों को जारी सर्कुलर में बीमा नियामक एवं विकास प्राधिकरण (इरडा)ने कहा कि स्वास्थ्य बीमा पॉलिसी को हर हाल में रिन्यू किया जाना चाहिए। अगर पॉलिसीधारक फर्जीवाड़ा करता है या झूठ बोलता है तो बात और है। सर्कुलर में कहा गया है, 'विशेष रूप से रिन्युअल के लिए इस आधार पर इनकार नहीं किया जाना चाहिए कि पॉलिसीधारक ने बीते सालों में एक या उससे ज्यादा क्लेम किए हैं।'

निर्देशों में यह भी कहा गया है कि सभी स्वास्थ्य बीमा पॉलिसियों में ऐसा प्रावधान शामिल होना चाहिए जो 15 दिन तक की देरी पर रियायत देने का इंतजाम करे ताकि बीमा पॉलिसी लेने वाला व्यक्ति वेटिंग पीरियड और पहले से मौजूद बीमारियों की कवरेज जैसे निरंतर जारी रहने वाले बेनेफिट के मामले में लगातार कवरेज हासिल करे।

अब तक ऐसे कई मामले सामने आए हैं जिनमें बीमा कंपनियों ने पॉलिसी जारी रहने के बीच आने वाले ब्रेक को रिन्यू की दरख्वास्त खारिज करने के बहाने के तौर पर इस्तेमाल किया। ऐसे मामलों में प्रस्तावक मुश्किल में फंस जाता है क्योंकि कोई भी दूसरी बीमा कंपनी उन बीमारियों के लिए कवरेज नहीं देती जिसके लिए दूसरी बीमा कंपनी क्लेम का भुगतान कर चुकी हो।

युवा प्रस्तावक को कुछ मोर्चा पर नुकसान उठाकर भले कवर मिल जाए लेकिन 70 साल से ज्यादा उम्र के लोगों पर सबसे ज्यादा मार पड़ती है। कोई भी बीमा कंपनी 70 साल से ज्यादा उम्र के वरिष्ठ नागरिक की ओर से नया प्रस्ताव स्वीकार नहीं करती। विशेष स्कीम के तहत होने पर मामला दूसरा है। इरडा के निर्देश उन लोगों को सुरक्षा मुहैया कराएंगे जो रिन्यू के आवेदन खारिज होने के मामले में सबसे ज्यादा बुरी स्थिति में हैं।

इसलिए, कंपनियों को इस बात का खुलासा करना होगा कि वे अधिकतम किस उम्र तक रिन्युअल उपलब्ध कराएंगी। उन्हें यह भी बताना होगा कि उम्र के हिसाब से उनके प्रीमियम का भुगतान किस तरह बढ़ेगा। रिन्युअल के नियमों में प्रक्रिया और कवर के दायरे की जानकारी होनी चाहिए। रिन्युअल पर निर्देशों से अलग नियामक संस्था ने स्वास्थ्य बीमा पर पारदर्शिता का स्तर भी बढ़ाया है। अगर रिन्युअल का प्रीमियम मौजूदा प्रीमियम से ज्यादा मांगा जाता है तो बीमा कंपनी को इस बढ़ोतरी के कारणों का उल्लेख करते हुए नोट देना होगा।

Wednesday, April 1, 2009

New Star Package Policy is One of The Best Health Insurance plan

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http://www.keepandshare.com/doc/view.php?id=1139782&da=y

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http://www.keepandshare.com/doc/view.php?id=1139793&da=y

निवेश के लिए किन-किन घटनाक्रमों का रखें ख्याल

बीती कुछ तिमाहियों के दौरान बाजार पर मंदी की छाया पड़ने के बाद पिछले सप्ताह वैश्विक बाजारों में ठीक - ठाक रैली देखी गई। बीते 10 कारोबारी सत्रों में महत्वपूर्ण बाजार इंडेक्स करीब 15 फीसदी चढ़े। बाजार में लौटी यह तेजी व्यापक थी और मंदी में पिटने वाले बैंकिंग तथा रियल एस्टेट जैसे सेक्टरों के शेयरों को वापसी करने का मौका मिला। लेकिन यह रैली इस सप्ताह बरकरार नहीं रही। सप्ताह के पहले दिन बाजार की गिरावट ने यह साबित कर दिया कि निवेशकों में उत्साह लौटने की जो बात कही जा रही है , उसमें कितना दम है और भविष्य अब भी कितना अनिश्चित बना हुआ है। हाल में देखी गई तेजी वैश्विक बाजारों में स्थिरता लौटने और वापसी के शुरुआती संकेतों पर आधारित थी। विश्लेषकों का कहना है कि वैश्विक बाजारों या अर्थव्यवस्थाओं में संभावित निर्णायक वापसी पर टिप्पणी करना अभी जल्दबाजी होगी। उन्होंने इस तेजी को मंदी के असर वाले बाजार की एक और रैली करार देना मुनासिब समझा। इसे राहत की रैली भी कहा जा सकता है। विश्लेषकों का मानना है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था में सुधार आने पर भारत जैसे उभरते हुए बाजारों में ज्यादा तेज और बड़ी रैली देखने को मिलेगी। ऐसा मुख्य रूप से विकसित बाजारों की तुलना में उभरते हुए बाजारों में अधिक बीटा फैक्टर की वजह से है।
कुछ ऐसी चीजें जिन्हें निवेश करते वक्त दिमाग में रखना चाहिए :
संभावित मजबूती
बीते कुछ कारोबारी सत्रों के दौरान एकाध गिरावट के बावजूद बाजारों में तेज रैली दर्ज की गई और बाजार से जुड़े आम चलन पर नजर डाली जाए तो आने वाले दिनों में कुछ और मजबूती आ सकती है। बाजारों में हाल में जो तेजी आई है , वह काफी तेज और अनुमान से अलग थी , इसलिए ज्यादा निवेशक इसका फायदा नहीं उठा सके। ऐसे निवेशक अब बाजार की मौजूदा तेजी से जुड़ा मौका खोने का दु : ख मना रहे होंगे। लेकिन शेयर की कीमतों का पीछा करने और जल्दबाजी में ऊंचे स्तरों पर निवेश करने के बजाय बाजार में मजबूती लौटने तक इंतजार करने की सलाह दी जाती है। लेकिन वैश्विक और घरेलू , दोनों शेयर बाजार आने वाले दिनों में कौन सी राह पकड़ेंगे , इसे लेकर बिल्कुल सटीक ढंग से कुछ नहीं कहा जा सकता। हालांकि बुरी खबरों की गैर - मौजूदगी और अमेरिकी सरकार की ओर से पेश राहत पैकेज वैश्विक बाजारों में कुछ जान फूंकने का वादा जरूर कर रहा है।
वैश्विक बाजार
वैश्विक बाजारों में हालात अभी निर्णायक रूप से नहीं सुधरे हैं। बाजार की वर्तमान तेजी मुख्य रूप से शुरुआती संकेतों और कुछ विश्लेषकों एवं कंपनियों की ओर से सकारात्मक टिप्पणी की वजह से आई है। निवेशकों को सतर्क रवैया दिखाना चाहिए और जोखिम के दायरे में आने वाली पूंजी का एक अंश ही इक्विटी में निवेश किया जाना चाहिए। जो लोग बाजार में पैसा लगाते हैं , उन्हें वैश्विक खबरों और घटनाक्रमों पर निगाह रखनी चाहिए। वैश्विक बाजारों के घटनाक्रम मध्यम से लंबी अवधि में घरेलू बाजारों की चाल तय करने वाले अहम आधार होते हैं। अमेरिका और यूरोपीय बाजारों के अलावा एशिया की दूसरी अर्थव्यवस्थाओं के घटनाक्रम भी घरेलू बाजारों की चाल पर असर डालते हैं।
सालाना रिटर्न
इस महीने सालाना नतीजों का मौसम शुरू होने वाला है। बाजारों के विशेषज्ञ सालाना नतीजों पर करीबी निगाह रखेंगे क्योंकि बीता कारोबारी साल काफी अलग और कंपनियों के लिए मुसीबतों से भरा था। विश्लेषक नए कारोबारी साल के लिए प्रबंधन के अनुमानों पर भी नजर रखेंगे। सालाना नतीजों का सीजन शुरू होने तक लंबी अवधि के लिए पैसा लगाने वाले निवेशकों को बाजार में नए निवेश को बरकरार रखना चाहिए। कंपनियों के सालाना नतीजे जल्द हमारे सामने होंगे। इनके आधार पर आप निवेश को लेकर आगे की राह तैयार कर सकते हैं। वित्तीय नतीजे आपको कंपनियों के बीच तुलना करने और भविष्य में उनकी संभावित स्थिति का अंदाजा लगाने का मौका देंगे।
राजनीतिक घटनाक्रम
आम चुनाव कुछ ही दिन दूर रह गए हैं। केंद्र में स्थिर सरकार होने पर बाजार सकारात्मक प्रतिक्रिया देते हैं। विश्लेषकों का मानना है कि चुनाव के दौरान बाजारों में कुछ उठापटक हो सकती है और निर्णायक कदम केंद्र में नई सरकार उभरने के बाद उठ सकता है। लंबी अवधि के निवेशकों को इन घटनाक्रमों पर करीबी नजर रखनी चाहिए। जानकारों का कहना है कि केंद्र में अगर कांग्रेस या भाजपा की सरकार आती है तो बाजारों को इससे ज्यादा तकलीफ नहीं होगी लेकिन केंद्र में वामपंथी दलों और मायावती का प्रभुत्व बढ़ता है तो बाजार में उठापटक आने की आशंका कहीं ज्यादा है।
शोध जरूरी
निवेशकों के लिए बाजारों और शेयरों पर अलग - अलग स्त्रोतों से मत और निवेश के टिप्स पर कदम बढ़ाने के अलावा अपने स्तर पर किया जाने वाला विश्लेषण भी काफी अहमियत रखता है। निवेशकों को टिप्स जरूर लेनी चाहिए लेकिन फैसला अपना होना चाहिए। आम तौर पर बाजार में उपलब्ध विभिन्न आंकड़ों और जानकारी को समझना तथा उसका विश्लेषण करना आसान नहीं होता। इसके बावजूद निवेशकों को उन्हें समझने की कोशिश करनी चाहिए ताकि मेहनत की कमाई का निवेश करते वक्त उनका फैसला तार्किक और संतुलित हो। बाजार से जुड़ी जानकारी हासिल करने के लिए आपके पास कई स्त्रोत उपलब्ध हैं लेकिन आपको किस स्त्रोत पर विश्वास करना है , इसका फैसला सबसे पहले कीजिए। गैर - विश्वसनीय स्त्रोतों से छनकर आने वाली खबरों पर भरोसा कर निवेश से जुड़े निर्णय जल्दबाजी में लेना , बेवकूफी के सिवा कुछ और नहीं।
निकलने का सही वक्त
बीते कुछ सप्ताह के दौरान बाजारों में कुछ बढ़ोतरी हुई है , ऐसे में यह उन निवेशकों के लिए माकूल वक्त है जो शेयर बेचकर निवेश से बाहर निकलने की योजना बना रहे हैं। छोटी मियाद के लिए पैसा लगाने वाले लोगों को मौजूदा स्तरों पर मुनाफा वसूली करने के मौके तलाशने चाहिए और पहला मौका मिलते ही फायदा बटोरना चाहिए। जो निवेशक बाजार पर निगाह रखते हैं , उन्हें निवेश बरकरार रखना चाहिए लेकिन निवेश पर स्टॉप लॉस के साथ। आम तौर पर निवेशक मुनाफा वसूली न कर नुकसान के जाल में फंस जाते हैं।
-विकास अग्रवाल